________________ भारत का सांस्कृतिक तीर्थ 395 पालिकारण्य में हुई। इसका संचालन थेर (स्थविर) रेवत ने किया। उपवाहिका का प्रतिवेदन पूरी संगीति के सामने रक्खा गया और स्वीकृत हुआ / इस परितनशील जगत ने बहुत से चढ़ाव उतार देखें हैं। राज्य, साम्राज्य आये और गये / बहुतों के ध्वंसावशेष भी धूल में मिल गये / सम्यताओं और संस्कृतियों के उदय हुए / उन्होंने करोड़ों मनुष्यों को प्रभावित किया, स्फूर्तिप्रदान किया। वह भी धरातल से उठ गये / इस भारत में ही इसके अनेक उदाहरण मिलते है / वैशाली जिस काल की, जिन विचारों की, प्रतीक थी वह आज नहीं है / जहाँ कल जनसंकुल वस्तियां थीं, दूर-दूर से आए हुए पण्य वस्तुओं का विनिमय होता था, जहाँ तपोबनों में योगाभ्यास के द्वारा शरीर और चित्त के कषायों को तृणवत्-दग्ध किया करते थे, जहां संस्कृत और पालि का निरन्तर अध्ययन होता था, जहां "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" धर्म का उद्घोष हुआ करता था, आज वहाँ सन्नाटा है / पुरानी पुस्तकों के कुछ पन्ने, ईट-पत्थर के कुछ टुकड़े, ही उस काल की यादगार हैं। इसको काई रोक नहीं सकता। नियति का चक्र चलता ही रहता है। एक को उठाता है तो दूसरे को गिराता है / पुरानी वैशाली पुनरुजीवित नहीं की जा सकती। आज हम जिस जगत् में रहते हैं उसका मूल मन्त्र, उसका बीजक, दूसरा है। आज चारो ओर भौतिकता का बोलबाला है। प्राचीन काल में भी लोग धन का संग्रह किया करते थे; वैभव को पहचानते थे, सभी विरक, संन्यासी और श्रमण नहीं थे। परन्तु, अर्थ और काम के ऊपर धर्म का अंकुश था। धर्म भी अन्तिम साध्य नहीं था। परमपुरुषार्थ सर्वोपरि लक्ष्य, तो मोक्ष-निर्वाण, था। आज अर्थ और काम ही अन्तिम लक्ष्य हैं। हम जब बेलफेयर (कल्याण) की बात कहते हैं तो हमारा ध्यान अन्न, वस्त्र, मकान, शिक्षा, आदि बातों की ओर जाता है / यह सभी बातें अच्छी है, परन्तु क्या उतने से ही काम चल सकता है ? यह सब चीजें मनुष्य को सुख से जीवन विताने में सहायक हो सकती हैं, परन्तु यदि सदैव नहीं तो कभी-कभी यह प्रश्न उठता ही है कि क्या इतना ही बस है ? एक अंग्रेजी किताब में मैंने किसी का यह वाक्य देखा था:-"Survival is good, but what is the good of survival, if there is nothing beyond it'' / संसार के आघातों से सुरक्षित रहना अच्छा है, परन्तु यदि इसके आगे और कुछ नहीं है तो सुरक्षित रहने से ही क्या होगा ? भौतिक सुखों के बीच में भी एक अतृप्ति का अनुभव होता रहता है, कुछ सूना-सा लगता रहता है। कुछ खो सा गया है। हम उसे बता नहीं सकते, उसका नाम भी नहीं जानते / ऐसी अनुभूति क्यों होती है ? यह वह प्रश्न है जिसपर वैशाली जैसे कुछ अन्य स्थलों में विचार हुआ करते थे। यह समस्या आज भी उतनी ही सजीव है जितना कि आज से सहस्रों और लाखों वर्ष पहले थी। जिन लोगों को अपने समय में सभी प्रकार का वैभव प्राप्त था, उन्होंने उसको तिलांजलि देकर अपना सारा समय इस प्रश्न के उत्तर की खोज में बिताया। स्यात् उनको उत्तर मिला / कम-से-कम, भौतिक वैभव के न होते हुये भी वह शान्त थे, तुष्ट थे, और उनके सम्पर्क में आने वाले भी शांत और तुष्ट होते थे। आज वैभव के होते हुए भी चतुर्दिक अशान्ति है। राग और द्वेष पराकाष्ठा की और बढ़ते जाते हैं। मनुष्य ने इन दिनों अपने नगरों और आश्रमों के चारों ओर के जंगलों को भी साफ नहीं किया था। आज