________________ 282 Homage to Vaisali अम्बपाली-हाँ रे, मगषपति के स्वागत के लिए ! राजनतंकी अपने स्वागत से किसी आगत को कैसे वंचित कर सकती है? हाँ, स्वागत-स्वागत में फर्क है। दीपशिखा भो तो पतंग का स्वागत करती है। और उसके स्वागत के दो ही नतीजे होते हैं या तो पतंग जलेगा, या दीपक बुझेगा। जिस दीपक ने बुझना तय कर लिया उसकी शिखा जितनी भी तेज रहे, उतना ही अच्छा ! चयनिका-(मर्राई आवाज में) फिर यह क्या कह रही हैं म ? . अम्बपाली-चयनिके, अम्बपाली तय कर चुकी है, जिसे वैशाली नहीं हरा सकी, उसे अम्बपाली हरायगी। हरायगी, या देख (अंगूठी दिखाती है) इस अमृत को चूसकर अमर वन जायगी। जो पताका हमारे वीरों ने रणभूमि में गिरा दी, बाज अजातशत्रु देखेगा, इस मेरी रंगभूमि में वह कितनी ऊंची फहराती है ! चयनिका-यह अजीब द्वन्द्वमयी बातें हैं, आयें! अम्बपाली-वन्द्वात्मक परिस्थिति में बातें भी द्वन्द्वात्मक हो सकती हैं। हम हराये जा चुके हैं, तो भी विजय की आकांक्षा रखते हैं। हम गिराये जा चुके हैं, तो भी उठने का अरमान हमसे हटा नहीं इस मनहूस सन्ध्या में हम सुनहली भोर का सपना देख रहे हैं ! इस द्वन्द्वमयी परिस्थिति में सीधी-सादी बातें क्या हो सकती हैं, पगली ! यह हाथ बढ़ाकर चयनिका की उँगली पकड़ती और उसे खींचकर ठुड्डी पकड़ चुमकारती है, उसके मस्तक पर चुम्बन देती है धुंधलका हो रहा है-एक परिचारिका वहाँ आकर दीप जला जाती है-एक ऊंचे चिरागदान पर कितनी ही दीप-शिखाएं जगमगा उठती हैं--उसके प्रकाश में अम्बपाली का सौन्दर्य और चमक उठता है दूसरी परिचारिका इसी समय एक अंगूठी लाकर अम्बपाली को देती है-अंगूठी पर वह नाम पढ़ती है और कहती है "जा उन्हें बुला ला!"- .. अजातशत्रु आता है-साधारण नागरिक-सा है वेश उसका-अम्बपाली आगे बढ़कर स्वागत करती और मंच पर बिठलाती है __ "चयनिके ! तू भी चली जा, यहां कोई न आवे"-कहकर बड़ी ही गम्भीर मुद्रा में अबातशत्रु से पूछती है अम्बपाली-मगधपति की आज्ञा | अजातशत्रु-मगधपति मत कहो, राजनतंकी ! मैं मगधपति की हैसियत से यहाँ नहीं आया / मगधपति इस वेश-भूषा में नहीं आया करते / अम्बपाली–क्षमा करें, मुझसे गलती हुई। मगधपति तो धनुष के टंकार और तलवारों की झंकार के साथ आया करते हैं। अजातशत्रु-मगध को अपने धनुष और तलवार पर कम नाज नहीं है, राजनतंकी! . तुम्हारे व्यंग में भी सचाई है !