________________ प्राकृत साहित्य और वैशाली 105 उपलब्ध है / सौभाग्य से पालि भाषा के क्षेत्र में बहुत कुछ काम हो चुका है जिसके फलस्वरूप प्राचीन-कालीन भारत की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति के सम्बन्ध में हमारी जानकारी में काफी वृद्धि हुई है। सौ वर्ष के करीब हुए भारतीय और विदेशी विद्वानों के सहयोग से पालि-ग्रन्थ-परिषद् की स्थपाना हई थी। इस परिषद ने अनेक ग्रन्थों का सम्पादन कर उन्हें प्रकाशित किया है, किन्तु दुर्भाग्यवश प्राकृत के संबंध में यह बात नहीं कही जा सकती। किन्हीं कारणों से हमारा ध्यान उस ओर अधिक नहीं गया है और विदेशी विद्वानों ने भी प्राकृत साहित्य के महत्त्व को बीसवीं सदी के आरम्भ में ही समझा है / यह बताने की मैं आवश्यकता नहीं समझता कि किन कारणों से प्राकृत के क्षेत्र में उतना कार्य नहीं किया जा सका जितना पालि साहित्य के संबंध में किया जा चुका है। यही कह देना पर्याप्त होगा कि इस अमाव को दूर करना और देश भर में बिखरे हुए प्राकृत ग्रन्थों को प्राप्त कर सम्पादन के बाद उन्हें प्रकाशित करना, प्राकृत अनुसन्धानशाला तथा अन्य परिषद् का उद्देश्य होगा। प्राकृत साहित्य के महत्व और उसकी विशालता के संबंध में दो शब्द कह देना आवश्यक जान पड़ता है। जहाँ पालि साहित्य की परम्परा अधिक से अधिक सात शताब्दियों तक चली, वहां प्राकृत की परम्परा की अवधि करीब पन्द्रह शताब्दियों तक चलती रही / भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि इंडो-आर्यन परिवार की भारतीय भाषाओं का पालि की अपेक्षा प्राकृत से कहीं अधिक निकट का संबंध है / वास्तव में इस देश की आधुनिक भाषायें पूर्व मध्य युग में प्रचलित विभिन्न प्राकृतों तथा अपभ्रंश की ही उत्तराधिकारिणी हैं / हिन्दी, बंगला, मराठी आदि किसी भी भाषा को लीजिए, उसका विकास किसी न किसी प्राकृत से ही हुआ है। विकास काल में कुछ ऐसे ग्रन्थों की रचना भी हुई जिनका वर्गीकरण निहायत कठिन है, अर्थात् जिनके संबंध में सहसा यह कह देना कि उनकी भाषा प्राकृत है अथवा किसी आधुनिक भाषा का पुराना रूप. आसान काम नहीं। इस दृष्टि से देखा जाये तो आधुनिक भाषाओं की उत्पत्ति और पूर्ण विकास समझने के लिये प्राकृत साहित्य का सम्यक ज्ञान आवश्यक है। अपनी परम्परा के अनुसार जैन आचर्य एक स्थान में तीन-चार महीनों से अधिक नहीं ठहरते थे और बराबर भ्रमण करते रहते थे। उन्होंने जो उपदेश दिये और जिन ग्रन्थों की रचना की वे देश भर में बिखरे पड़े हैं / सौभाग्य से उनमें से अधिकांश हस्तलिखित आलेखों के रूप में भंडारों में आज भी सुरक्षित हैं / ये अन्य सौराष्ट्र-गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक और उत्तर तथा पूर्व में अनेक स्थानों में पाए गये हैं। इन सबको एकत्र करना और आवश्यक अनुसन्धान के बाद आधुनिक ढंग से उनके प्रकाशन की व्यवस्था करना एक आवश्यक कार्य है। जैन आचार्यों और विद्वानों की एक और विशेषता उनकी रचनाओं की व्यापकता है / प्राय: सभी की भाषा प्राकृत है, परन्तु उनकी साहित्यिक परिधि महावीर स्वामी के उपदेश और धार्मिक विषयों के विवेचन तक ही सीमित नहीं। जैन श्रमणों ने लोक भाषा को साहित्य का वाहन बनाया था। उन युगों की देश की लोक भाषा प्राकृत थी। इस कारण प्राकृत भाषा 14