________________ वैशाली-विदेह 93 ऋजुसूत्र नय शब्द से लक्षित होता है / ऋजुसूत्रनय का अर्थ है आगे पीछे की गली कूची में न जाकर केवल वर्तमान का ही विचार करना। संभव है सूत्रधार का काम भी वैसा ही कुछ रहा हो जो उपस्थित समस्याओं को तुरन्त निपटावे / हरेक समाज में, सम्प्रदाय में और राज्य में भी प्रसंग विशेष पर शब्द अर्थात् आज्ञा को ही प्राधान्य देना पड़ता है। जब अन्य प्रकार से मामला सुलझता न हो तब किसी एक का शब्द ही अन्तिम प्रमाण माना जाता है। शब्द के इस प्राधान्य का भाव अन्यरूप में शब्दनय में गर्मित है। बुद्ध ने खुद ही कहा है कि लिच्छवीगण पुराने रीतिरिवाजों अर्थात् रूढ़ियों का आदर करते हैं। कोई भी समाज प्रचलित रूढ़िओं का सर्वथा उन्मूलन करके नहीं जी सकता। समभिरूढनय में रूढ़ि के अनुसरण का भाव तात्विक दृष्टि से घटाया है। समाज, राज्य और धर्म को व्यवहार गत और स्थूल विचारसरणी या व्यवस्था कुछ भी क्यों न हो पर उसमें सत्य की पारमार्थिक दृष्टि न हो तो वह न जो सकती है, न प्रगति कर सकती है। एवम्भूतनय उसी पारमार्थिक दृष्टि का सूचक है जो तथागत के 'तथा' शब्द में या पिछले महायान के 'तथता' में निहित है। जैन परम्परा में भी 'वहत्ति' शब्द उसी युग से आज तक प्रचलित है जो इतना ही सूचित करता है कि सत्य जैसा है वैसा हम स्वीकार करते हैं। ब्राह्मण, बौद्ध, जैन आदि अनेक परम्पराओं के प्राप्त ग्रन्थों से तथा सुलभ सिक्के और खुदाई से निकली हुई अन्यान्य सामग्री से जब हम प्राचीन आचारविचारों का, संस्कृति के विविध अंगों का, भाषा के अङ्गप्रत्यङ्गों का और शब्द के अर्थों के भिन्न-भिन्न स्तरों का विचार करेंगे तब शायद हमको ऊपर की तुलना भी काम दे सके। इस दृष्टि से मैंने यहां संकेत कर दिया है। बाकी तो जब हम उपनिषदों, महाभारत-रामायण जैसे महाकाव्यों, पुराणों, पिटकों आगमों और दार्शनिक साहित्य का तुलनात्मक बड़े पैमाने पर अध्ययन करेंगे तब अनेक रहस्य ऐसे ज्ञात होंगे जो सूचित करेंगे कि यह सब किसी एक वट बीज का विविध विस्तार मात्र है। अध्ययन का विस्तार पाश्चात्य देशों में प्राच्यविद्या के अध्ययन आदि का विकास हआ है उसमें अविश्रान्त उद्योग के सिवाय वैज्ञानिक दृष्टि, जाति और पन्यभेद से ऊपर उठकर सोचने की वृत्ति और सर्वाङ्गीण अवलोकन ये मुख्य कारण हैं। हमें इस मार्ग को अपनाना होगा। हम बहुत थोड़े समय में अमीष्ट विकास कर सकते हैं। इस दृष्टि से सोचता हूँ तब कहने का मन होता है कि हमें उच्च विद्या के वर्तुल में अवेस्ता आदि जरथुस्त परम्परा के साहित्य का समावेश करना होगा। इतना ही नहीं बल्कि इस्लामी साहित्य को भी समुचित स्थान देना होगा / जब हम इस देश में राजकीय एवं सांस्कृतिक दृष्टि से घुलमिल गये हैं या अविभाज्य रूप से साथ रहते हैं तब हमें उसी भाव से सब विद्याओं को समुचित स्थान देना होगा। बिहार या वैशालीविदेह में इस्लामी संस्कृति का काफी स्थान है। और पटना, वैशालो आदि बिहार के स्थानों की खुदाई में तावा जैसे पारसी गृहस्थ मदद करते हैं यह भी हमें भूलना न चाहिए।