________________ 92 Homage to Vaisali रहा / जैसे जैसे जैनधर्म का प्रसार अन्यान्य क्षेत्रों में तथा छोटे बड़े सैकड़ों, हजारों गांवों में हुला वैसे वैसे स्थानिक संघ भी कायम हुए जो आज तक कायम हैं। किसी भी एक कस्बे या घेहर को लीजिए अगर वहाँ जैन बस्ती है तो उसका वहाँ संघ होगा और सारा धार्मिक कारोबार संघ के जिम्मे होगा। संघ का कोई मुखिया मनमानी नहीं कर सकता / बड़े से बड़ा आचार्य भी हो तो उसे संघ के अधीन रहना ही होगा। संघ से बहिष्कृत व्यक्ति का कोई गौरव नहीं / सारे तीर्थ; सारे भण्डार और सारे धार्मिक सार्वजनिक काम संघ की देखरेख में ही चलते हैं / और उन इकाई संघों के मिलन से प्रान्तीय और भारतीय संघों की घटना आज तक चली माती है। जैसे गणराज्य का मारत व्यापी संघराज्य में विकास हुआ वैसे ही पार्श्वनाथ और महावीर के द्वारा संचालित उस समय के छोटे बड़े संघों के विकास स्वरूप में आज की जैन संघव्यवस्था है / बुद्ध का संघ भी वैसा ही है। किसी भी देश में जहाँ बौद्ध धर्म है वहाँ संघ व्यवस्था है और सारा धार्मिक व्यवहार संघों के द्वारा ही चलता है। जैसे उस समय के राज्यों के साथ गणशब्द लगा था वैसे ही महावीर के मुख्य शिष्य कहलाते हैं / आज भी जैन परम्परा में 'गणी' पद कायम है और बौद्ध परम्परा में संघ स्थविर या संघनायक पद। - जैन तत्त्वज्ञान की परिभाषाओं में नयवाद की परिभाषा का भी स्थान है। नय पूर्ण सत्य की एक बाजू को जानने वाली दृष्टि का नाम है। ऐसे नय के सात प्रकार जैन शास्त्रों में पुराने समय से मिलते हैं जिनमें प्रथम नय का नाम है 'नेगम' / कहना न होगा कि नगम शब्द "निगम' से बना है जो निगम वैशाली में थे और जिनके उल्लेख सिक्कों में भी मिले हैं। 'निगम समान कारोबार करने वालों की श्रेणी विशेष है। उसमें एक प्रकार की एकता रहती हैं और सब स्थूल व्यवहार एक सा चलता है। उसी 'निगम' का भाव लेकर उसके ऊपर से नंगम शब्द के द्वारा जैन परम्परा ने ऐसी एक दृष्टि का सूचन किया है जो समाज में स्थूल होती है और जिसके आधार पर जीवन व्यवहार चलता है। नैगम के बाद संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूट और एवंभूत ऐसे छह शब्दों के द्वारा आंशिक विचारसरणियों का सूचन आता है / मेरी राय में उक्त छहों दृष्टियां यद्यपि तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखती हैं पर वे मूलतः उस समय के राज्य व्यवहार और सामाजिक व्यावहारिक आधार पर फलित की गई हैं। इतना ही नहीं बल्कि संग्रह व्यवहारादि ऊपर सूचित शब्द भी तत्कालीन भाषा प्रयोगों से लिए गए हैं। अनेक गण मिलकर राज्य व्यवस्था या समाज व्यवस्था करते थे जो एक प्रकार का समुदाय या संग्रह होता था और जिसमें भेद में अभेद दृष्टि का प्राधान्य रहता था। तत्त्वज्ञान के संग्रह नय के अर्थ में भी वही भाव है। व्यवहार चाहे राजकीय हो या सामाजिक वह जुदे जुदे व्यक्ति या दल के द्वारा ही सिद्ध होता है। तत्वज्ञान के व्यवहार नय में भी भेद अर्थात् विभाजन का ही भाव मुख्य है। हम वैशाली में पाए गए सिक्कों से जानते हैं कि 'व्यावहारिक' और 'विनिश्चय महामात्य' की तरह 'सूत्रधार' भी एक पद था। मेरे ख्याल से सूत्रधार का काम वही होना चाहिए जो जैन तत्त्वज्ञान के