________________ 91 वशाली-विदेह का व्यापक विद्यामय वातावरण भी निमित्त है। वहां के अध्यापक, वहां की कार्य प्रणाली, वहां के पुस्तकालय आदि ऐसे अङ्ग-प्रत्यङ्ग हैं जो हमें अपनी ओर खींचते हैं, अपने ही देश की विद्याओं का अध्ययन करने के लिये हमको हजारों कोस दूर कर्ज ले करके भी जाना पड़ता है और उस स्थिति में जब कि उन प्राच्य विद्याओं की एक एक शाखा के पारदर्शी अनेक विद्वान् भारत में भी मौजूद हों। यह कोई अचरज की बात नहीं है / वे विदेशी विद्वान इस देश में आकर सीख गये, अभी वे सीखने आते हैं पर सिक्का उनका है / उनके सामने भारतीय पुराने पण्डित और नई प्रणाली के अध्यापक अकसर फीके पड़ जाते हैं / इसमें कृत्रिमता और मोह का भाग बाद करके जो सत्य है उसकी ओर हमें देखना है / इसको देखते हुए मुझको कहने में कोई भी हिचकिचाहट नहीं कि हमारे उच्च विद्या के केन्द्रो में शिक्षण-प्रणाली का आमूल परिवर्तन करना होगा। उच्च विद्या के केन्द्र अनेक हो सकते हैं। प्रत्येक केन्द्र में किसी एक विद्या परंपरा की प्रधानता भी रह सकती है। फिर भी ऐसे केन्द्र अपने संशोधन कार्य में भी पूर्ण तमी बन सकते हैं जब अपने साथ संबंध रखने वाली विद्या परंपराओं को भी पुस्तक आदि सामग्री वहाँ संपूर्ण तथा सुलभ हो। पालि, प्राकृत, संस्कृत भाषा में लिखे हुए सब प्रकार के शास्त्रों का परस्पर इतना घनिष्ठ संबन्ध है कि कोई भी एक शाखा की विद्या का अभ्यासी विद्या की दूसरी शाखाओं के आवश्यक वास्तविक परिशीलन को बिना किए सच्चा अभ्यासी बन ही नहीं सकता, जो परिशीलन अधूरी सामग्री वाले केन्द्रों में संभव नहीं। ... इससे पुराना पंथवाद और जातिवाद जो इस युग में हेय समझा जाता है वह अपने आप शिथिल हो जाता है। हम यह जानते हैं कि हमारे देश के उच्च वर्णाभिमानी विद्यार्थी भी युरोप में जाकर वहाँ के संसर्ग से वर्णाभिमान भूल जाता है / यह स्थिति अपने देश में स्वाभाविक तब बन सकती है जब कि एक ही केन्द्र में अनेक अध्यापक हों, अध्येता हों और परस्पर मिलन सहज हो। ऐसा नहीं होने से साम्प्रदायिकता का मिथ्या अंश किसी रूप में पुष्ट हुए बिना रह नहीं सकता। साम्प्रदायिक दाताओं की मनोवृत्ति को जीतने के वास्ते उच्चविद्या के क्षेत्र में भी साम्प्रदायिकता का दिखावा संचालकों को करना पड़ता ही है। इसलिये मेरे विचार से उच्चतम अध्ययन के केन्द्रों में सर्वविद्याओं की आवश्यक सामग्री होनी ही चाहिए। शास्त्रीय परिभाषा में लोकजीवन की छाया अब अन्त में मैं संक्षेप में यह दिखाना चाहता हूँ कि उस पुराने युग के राज्यसंघ और धर्म संघ का आपस में कैसा चोली-दामन का सम्बन्ध रहा है जो अनेक शब्दों में तथा तत्त्वज्ञान की परिभाषाओं में भी सुरक्षित हैं। हम जानते हैं कि वज्जियों का राज्य गणराज्य था अर्थात् वह एक संघ था। गण और संघ शन्द ऐसे समूह के सूचक हैं जो अपना काम चुने हुए योग्य सभ्यों के द्वारा करते थे। वही बात धर्मक्षेत्र में भी थी। जैनसंघ भी भिक्षु-भिक्षुणी, श्रावक-श्राविका चतुर्विध अङ्गों से ही बना और सब अङ्गों की सम्मति से ही काम करता