________________ Homage to Vaisali / सांख्य, योग परम्परा के मूल चिन्तक और ग्रन्धकार एवं व्याख्याकार बिहार में या बिहार की सीमा के आसपास ही हुए हैं। मेरे खयाल से मीमांसाकार जैमिनि और बादरायण भी बिहार के ही होने चाहिए। पूर्वोत्तर मीमांसा के अनेक धुरीण प्रमुख व्याख्याकार मिथिला में ही हुए हैं जो एक बार सैकड़ों मीमांसक विद्वानों का धाम मानी जाती थी। बंगाल, बक्षिण आदि अन्य भागों में न्याय विद्या की शाखा-प्रशाखाएं फूटी हैं पर उनका मूल तो मिथिला ही है / वाचस्पति, उदयन, गंगेश आदि प्रकाण्ड विद्वानों ने दार्शनिक विद्या का इतना अधिक विकास किया है कि जिसका असर प्रत्येक धर्मपरम्परा पर पड़ा है। तक्षशिला के ध्वंस के बाद जो बौद्ध विहार स्थापित हुए उनके कारण तो बिहार काशी बन गया था / नालन्दा, विक्रमशिला, उदन्तपुरी जैसे बड़े बड़े विहार और जगत्तल जैसे साधारण विहार में बसनेवाले मिक्षकों और अन्य दुवेक मिश्र जैसे ब्राह्मण विद्वानां ने जो संस्कृत बोट साहित्य का निर्माण किया है उसकी गहराई, सूक्ष्मता और बहुश्रुतता देखकर आज भी बिहार के प्रति आदर उमड़ आता है। यह बात भली भांति हमारे लक्ष में आ सकती है कि बिहार धर्म की तरह विद्या का भी तीर्थ रहा है। विद्याकेन्द्रों में सर्व विद्याओं के संग्रह की आवश्यकता __ जैसा पहले सूचित किया है कि धर्मपरम्पराओं की अपनी दृष्टि का तथा व्यवहारों का युगानुरूप विकास करना ही होगा। वैसे ही विद्याओं की सब परम्पराओं को भी अपना तेज कायम रखने और बढ़ाने के लिए अध्ययन अध्यापन की प्रणाली में नये सिरे से सोचना होगा। .. प्राचीन भारतीय विद्याएं कुल मिलाकर तीन भाषाओं में समा जाती हैं- संस्कृत, पाली और प्राकृत / एक समय था जब संस्कृत के धुरंधर विद्वान् भी पाली या प्राकृत शास्त्रों को जानते न थे या बहत ऊपर ऊपर से जानते थे। ऐसा भी समय था जबकि पाली और प्राकृत शास्त्रों के विद्वान् संस्कृत शास्त्रों की पूर्ण जानकारी रखते न थे। यही स्थिति पाली और पाकृत शास्त्रों के जानकारों के बीच परस्पर में भी थी। पर क्रमशः समय बदलता गया / आज तो पुराने युग ने ऐसा पलटा खाया है कि इसमें भी सच्चा विद्वान् एक या दूसरी भाषा की तथा उस भाषा में लिखे हुए शास्त्रों की उपेक्षा करके नवयुगीन विद्यालयों और महाविद्यालयों को चला ही नहीं सकता। इस दृष्टि से जब बिचार करते हैं तब स्पष्ट मालूम पड़ता है कि युरोपीय विद्वानों ने पिछले सवासो वर्ष में भारतीय विद्याओं का जो गौरव स्थापित किया है, संशोधन किया है उसकी बराबरी करने के लिये तथा उससे कुछ आगे बढ़ने के लिये हम भारतवासियों को अब अध्ययन-अध्यापन, चिन्तन, लेखन और संपादनविवेचन आदि का क्रम अनेक प्रकार से बदलना होगा जिसके सिवाय हम प्राच्यविद्या-विशारद युरोपीय विद्वानों के अनुगामी तक बनने में असमर्थ रहेंगे। प्राच्य भारतीय विद्या की किसी मो शाखाका उच्च अध्ययन करने के लिये तथा उच्च पदवी प्राप्त करने के लिए हम भारतीय युरोप के जुदे-जुदे देशों में जाते हैं उसमें केवल नौकरी की दृष्टि से डिग्री पाने का ही मोह नहीं है पर इसके साथ उन देशों की उस-उस संस्था