________________ वैशाली-विदेह 89 ... सांस्कृतिक और धार्मिक स्थानों के साथ-साथ अनेक ज्ञानभण्डार भी नष्ट हुए। हमारी धर्म-परम्परओं की पुरानी दृष्टि बदलनी हो तो हमें नीचे लिखे अनुसार कार्य करना होगा। (1) प्रत्येक धर्मपरम्परा को दूसरी धर्म-परम्पराओं का उतना ही आदर करना जितना वह अपने बारे में चाहती है। (2) इसके लिए गुरुवर्ग और पण्डित वर्ग सबको आपस में मिलनेजुलने के प्रसंग पैदा करना और उदारदृष्टि से विचार विनिमय करना; जहाँ ऐकमत्य न हो वहाँ विवाद में न पड़कर सहिष्णुता की वृद्धि करना; धार्मिक सांस्कृतिक अध्ययन अध्यापन की परम्पराओं को इतना विकसित करना कि जिसमें किसी एक धर्म परम्परा का अनुयायी अन्य धर्म परम्पराओं की बातों से सर्वथा अनभिज्ञ न रहे और उनके मन्तव्यों को गलतरूप में न समझे / इसके लिए अनेक विश्वविद्यालय महाविद्यालय जैसे शिक्षा केन्द्र बने हैं जहां इतिहास और तुलना दृष्टि से धर्म परम्पराओं की शिक्षा दी जाती है। फिर भी अपने देश में ऐसे सैकड़ों नहीं हजारों छोटे बड़े विद्याधाम, पाठशालाएं आदि हैं जहाँ केवल साम्प्रदायिक दृष्टि से उस परम्परा की एकांगी शिक्षा दी जाती है। इसका नतीजा अभी यही देखने में आता है कि सामान्य जनता और हरेक परम्परा के गुरु या पण्डित अभी उसी दुनिया में जी रहे हैं जिसके कारण सब धर्म परम्पराएं मिस्तेज और मिथ्याभिमानी हो गई हैं। . विद्याभूमि विदेह वैशाली विदेह-मिथिला के द्वारा अनेक शास्त्रीय विद्याओं के विषय में बिहार का जो स्थान है वह हमें पुराने ग्रीस की याद दिलाता है। उपनिषदों के उपलब्ध भाष्यों के प्रसिद्ध आचार्य भले ही दक्षिण में हुए हों पर उपनिषदों के आत्मतत्त्वविषयक और अद्वैतस्वल्पविषयक अनेक गंभीर चिन्तन विदेह के जनक को सभा में ही हुए हैं जिन चिन्तनों ने केवल पुराने आचार्यों का हो नहीं पर आधुनिक देश-विदेश के अनेक विद्वानों का भी ध्यान खींचा है। बुद्ध ने धर्म और विनय के बहुत बड़े माग का असली उपदेश बिहार के जुदे जुदे स्थानों में हो किया है इतना ही नहीं बल्कि बौद्ध त्रिपिटक को सारी संकलना बिहार की तीन संगीतिओं में ही हुई है। जो त्रिपिटक बिहार के सपूतों के द्वारा ही एशिया के दूर दूर अगम्य भागों में भी पहुंचे हैं और जो इस समय की अनेक भाषाओं में रूपान्तरित भी हुए हैं, इन्हीं त्रिपिटकों ने युरोपीय सैकड़ों विद्वानों को अपनी ओर खींचा और जो कई युरोपीय भाषाओं में रूपान्तरित भी हुए। जैन परम्परा के मूल आगम पीछे से भले ही पश्चिम और दक्षिण भारत के जुदे-जुदे भागों में पहुँचे हों, संकलित व लेखबद्ध भी हुए हों पर उनका उद्गम और प्रारम्भिक संग्रहण तथा संकलन तो बिहार में ही हुआ है। बौद्ध संगीति की तरह प्रथम जैन संगीति भी बिहार में ही मिली थी। चाणक्य के अर्थशास्त्र की और सम्भवतः कामशास्त्र की जन्मभूमि भी बिहार ही है। हम जब दार्शनिक, सूत्र और व्याख्या ग्रन्थों का विचार करते हैं तब तो हमारे सामने बिहार की वह प्राचीन प्रतिभा मूर्त होकर उपस्थित होती है / कणाद और अक्षपाद ही नहीं पर उन दोनों के वैशेषिक-न्याय दर्शन के भाष्य, वार्तिक, टीका, उपटीका आदि सारे साहित्य परिवार के प्रणेता बिहार में ही, खासकर विदेह मिथिला में ही हुए हैं। 12