________________ 88 Homage to Vqisali राज्यसंघ और धर्मसंघ दोनों का प्रवृत्तिक्षेत्र तो पुक अखण्ड भारत ही है। ऐसी स्थिति में अगर संघराज्य को ठीक तरह से विकास करना है और जनकल्याण में भाग लेना है तो धर्मसंघ के पुरस्कर्ताओं को भी व्यापक दृष्टि से सोचना होगा / अगर वे ऐसा न करें तो अपने अपने धर्मसंघ को प्रतिष्ठित व जीवित रख नहीं सकते या भारत के संघराज्य को भी जीवित रहने न देंगे / इसलिए हमें पुराने गणराज्य की संघदृष्टि तथा पन्थों की संघदृष्टि का इस युग में ऐसा सामञ्जस्य करना होगा कि धर्मसंघ भी विकास के साथ जीवित रह सके और भारत का संघराज्य भी स्थिर रह सके / भारतीय संघराज्य का विधान असाम्प्रदायिक है इसका अर्थ यही है कि संघराज्य किसी एक धर्म में बद्ध नहीं है / इसमें लघुमती बहुमती सभी छोटे-बड़े धर्मपन्थ समान भाव से अपना-अपना विकास कर सकते हैं / जब संघराज्य की नीति इतनी उदार है तब हरेक धर्म परम्परा का कर्तव्य अपने आप सुनिश्चत हो जाता है कि प्रत्येक धर्म परम्परा समग्र जनहित की दृष्टि से संघराज्य को सब तरह से दृढ़ बनाने का ख्याल रखे और प्रयत्न करे। कोई भी लघु या बहुमती धर्म-परम्परा ऐसा न सोचे और न ऐसा कार्य करे कि जिससे राज्य की केन्द्रीय शक्ति या प्रान्तिक शक्तियां निबल हों / यह तभी संभव है जब कि प्रत्येक धर्म परम्परा के जबाबदेह समझदार त्यागी या गृहस्थ अनुयायी अपनी दृष्टि को व्यापक बनावें और केवल संकुचित दृष्टि से अपनी परम्परा का ही विचार न करें। धर्म परम्पराओं का पुराना इतिहास हमें यही सिखाता है / गणतंत्र, राजतंत्र ये सभी आपस-आपस में लड़कर अंत में ऐसे धराशायी हो गये कि जिससे विदेशियों को भारत पर शासन करने का मौका मिला। गांधी जी की अहिंसा दृष्टि ने उस त्रुटि को दूर करने का प्रयत्न किया और अन्त में 27 प्रान्तीय घटक राज्यों का एक केन्द्रीय संघराज्य कायम हुमा जिसमें सभी प्रान्तीय लोगों का हित सुरक्षित रहे और बाहर के भय स्थानों से भी बचा जा सके / अब धर्म परम्पराओं को भी अहिंसा, मैत्री या ब्रह्म भावना के आधार पर ऐसा धार्मिक वातावरण बनाना होगा कि जिसमें कोई एक परम्परा अन्य परम्पराओं के संकट को अपना संकट समझे और उसके निवारण के लिये वैसा ही प्रयत्न करे जैसा अपने पर आये संकट के निवारण के लिए / हम इतिहास से जानते हैं कि पहले ऐसा नहीं हुआ। फलतः कभी एक तो कमी दूसरी परम्परा बाहरी आक्रमणों का शिकार बनी और कम ज्यादा रूप में सभी धर्म: परम्पराओं की सांस्कृतिक और विद्या संपत्ति को सहना पड़ा। सोमनाथ, रुद्र महालय और उज्जयिनी का महाकाल तथा काशी आदि के वैष्णव, शैव आदि धाम इत्यादि पर जब संकट आये तब अगर अन्य परम्पराओं ने प्राणार्पण से पूरा साथ दिया होता तो वे धाम बच जाते / नहीं भी बचते तो सब परम्पराओं की एकता ने विरोधियों का हौसला जरूर ढोला किया होता / सारनाथ, नालन्दा, उदन्तपुरी, विक्रमशिला आदि के विद्याविहारों को बख्तियार खिलजी कभी ध्वस्त कर नहीं पाता अगर उस समय बौद्धतर परम्परायें भी उस आफत को अपनी समझतीं / पाटन, तारंगा सांचोर, आबु, झालोर आदि के शिल्पस्थापत्यप्रधान जैन मंदिर भी कभी नष्ट नहीं होते। अब समय बदल गया और हमें पुरानी त्रुटियों से सबक सीखना होगा।