________________ 370 आखिर... ईश्वरको किस स्वरूप में कैसा माने? को देखकर इच्छा जगती है या इच्छा पहले से ही जगी हुई है और फिर बाद में जगत को वैसा बनाते हैं ? यहाँ एक शंका ऐसी भी ऊठती है कि... इच्छा और कार्योत्पत्ति के बीच में अवकाश कालान्तर मानना या नहीं? यदि कालान्तर - अवकाश मानें तो पहले इच्छा बाद में कार्य। या पहले कार्य और सहभू इच्छा। या कार्य और इच्छा सहभू ही है। यदि कार्योत्पत्ति के पहले इच्छा मानकर बीच में कालक्षेप, कालान्तर मानें तो उस समय इच्छा कार्य में परिणत हुए बिना क्यों रही। मतलब यह भी होगा कि इच्छा के होते हुए कार्य नहीं भी उत्पन्न होता है। इच्छा के रहते हुए कार्य के प्रति कोई उत्पत्ति निश्चित नहीं है। अनिवार्यता नहीं है। दोनों में अविनाभाव संबंध भी संभव नहीं है। तो फिर ऐसी तो सेंकडो इच्छाएं अभी भी ईश्वर में सन्निहित होगी जो परिपूर्ण नहीं हुई है। जिसके अनुरूप कार्य नहीं हुई है। इससे ऐसा भी सिद्ध होगा कि... अभी सेंकडों कार्य होने के अवशिष्ट होने के कारण सृष्टि अधूरी है। पूर्ण ईश्वर की कृति - सृष्टि अपूर्ण क्यों ? तो फिर अपूर्ण सृष्टिरूप कार्य को समझकर ईश्वर को भी पूर्ण मानना या अपूर्ण मानना ? सृष्टि को भी पूर्ण माननी या अपूर्ण - अधूरी माननी? यदि अपूर्ण मानें तो क्या-क्या बनना और अवशिष्ट है? क्या क्या बन चुका है? कितने प्रतिशत सृष्टि बन चुकी है? और कितनी बननी अवशिष्ट है ? वर्तमान जगत-संपूर्ण संसार - आकाश से धरती तक देखकर क्या कमी है? और किन किन पदार्थों की कमी है ? और कौन कौन से पदार्थ होने चाहिए? जिनके कारण सृष्टि की पूर्णता मानी जा सके? क्या समझना ? इससे न तो ईश्वर की सिद्धि होगी और न ही सृष्टि की सिद्धि होगी। देखते हैं तब देखते ही इच्छा प्रबल बन जाती है। फिर उसको लेने के लिए लालायित हो जाते हैं। फिर उस इच्छा को रोक नहीं पाते हैं, यदि इच्छा पूरी होने के बीच कोई अवरोध आ गया तो बच्चे - रोने चिल्लाने