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विविध पहलुओं पर गहन चिन्तन- मन्थन किया, नित नए प्रयोग किए, और राष्ट्रीय शिक्षा के साथ-साथ लोक-शिक्षा के विकास और विस्तार की नई-नई दिशाएं खोलने का अपूर्व पुरुषार्थं भी किया । शिक्षण की नई धाराओं के साथ चिन्तन और लेखन की भी नई-नई धाराएं प्रवाहित होने लगीं । आग्रहपूर्वक और विचारपूर्वक अपनी ही भाषा में सोचने और लिखने की एक स्वस्थ और सुदृढ़ परम्परा का शुभारम्भ हुआ । गुजराती, मराठी, हिन्दी, उर्दू— जैसी देशी भाषाओं में अलग-अलग विषयों की जानकारी देनेवाले अध्ययन-ग्रंथ लिखे और छापे जाने लगे । आरम्भ से आज तक सारी पढ़ाई मातृभाषा या राष्ट्रभाषा में चले, इसका आग्रह रक्खा गया। एक विषय के रूप में अंग्रेजी भी पढ़ी और पढ़ाई गई, पर उसके माध्यम से सारे विषयों की पढ़ाई को अमान्य किया गया । सन् १९१६-२० से लेकर सन् १९४६-४७ तक सारे देश में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के क्षेत्र में राष्ट्रीय शिक्षा की दृष्टि से ये जो प्रयोग जगह-जगह हुए, जिनमें सन् १९३७-३८ में बुनियादी शिक्षा अथवा नई तालीम के प्रयोग भी जुड़े, उन सबके संयोजन, संचालन और मार्गदर्शन में काकासाहेब का अपना बहुत ही मूलभूत और मूल्यवान योगदान रहा। इस निमित्त से उन दिनों उन्होंने बहुत पढ़ा, बहुत सोचा, बहुत किया, बहुत करवाया, बहुत लिखा और बहुत कहा। इसी सिलसिले में सारे देश में उनकी जो शैक्षणिक यात्राएं चलीं, उनके जो भाषण प्रवचन हुए, उनके कारण देश में राष्ट्रीयता का अपना एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण स्थान बना । राष्ट्रीय शिक्षा रूपी इस महान यज्ञ के आचार्यों में काकासाहेब का काम अग्रगण्य रहा है।
काकासाहेब की अनेक विशेषताओं में एक बड़ी विशेषता यह रही है कि जन्म से मराठीभाषी होते हुए भी अपने अप्रतिम पुरुषार्थ से वे गुजराती के मर्मज्ञ और मूर्धन्य साहित्यकार बने और साहित्यिकों के बीच में प्रतिष्ठित और पुरस्कृत हुए। गुजराती, मराठी, हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत को उन्होंने जो कुछ, जिस तरह से दिया है, उसके कारण इन भाषाओं के भण्डार समृद्ध और सुशोभित हुए हैं। देश की इन भाषा-भगिनियों के ऊपर काकासाहेब के ऋणों की कोई सीमा नहीं है ।
सन् १९१७-१८ से सन् १९३३ - ३४ तक लगातार गुजरात और उसके राष्ट्रीय जीवन से जुड़े रहने के बाद काकासाहेब साबरमती से वर्धा आ गए। वर्षों वे वर्धा के हरिजन छात्रावास में रहे। जब वर्धा के महिलाआश्रम की बगल में, सेवाग्राम के रास्ते पर, काकावाड़ी का निर्माण हुआ, तो काकासाहेब उसमें रहने लगे और वहीं से पहले राष्ट्र भाषा का और फिर हिन्दी - हिन्दुस्तानी का काम करते रहे । 'सबकी बोली' नामक अपना उस समय का लोकप्रिय मासिक उन्होंने वहीं से निकाला । राष्ट्रभाषा हिन्दी के और हिन्दी - हिन्दुस्तानी के प्रचार भी साहेब ने, अन्दर-बाहर के सारे विरोधों के बावजूद, जो प्रयत्न और पुरुषार्थ किए, उनकी याद को उनके उस समय के साथी और सहयोगी क्यों कर भुला सकते हैं? काकासाहेब के संघर्षमय जीवन का वह एक स्मरणीय अध्याय है ।
Sararara देश के और गांधी परिवार के उन बिरले व्यक्तियों में से हैं, जिन्होंने मौत को बार-बार छाया है और इस तरह एक अर्थ में मृत्युञ्जयी बनने का बिरुद पाया है । क्षय और हैजे — जैसी जानलेवा
मारियों से जूझकर ६४ साल जिन्होंने तन-मन की सजगता और सक्रियता के साथ बिताए हों, और आगे इसी रूप में १०० साल पूरे करने की साध जिनके मन-प्राण में बसी हो, ऐसे महाप्राण व्यक्ति हममें आज कितने हैं ?
काकासाहेब की एक विशेषता और है । उनकी वाणी जितनी मुखर और अस्खलित रही है, उतनी उनकी लेखनी नहीं रह पाई। लिखने के काम में उनकी अंगुलियां उनसे सहयोग नहीं कर पाईं। महाभारत के व्यास के लिए गणेश ने जो काम किया, काकासाहेब के लिए वैसा ही काम उनके अन्तेवासियों ने सातत्य से
व्यक्तित्व : संस्मरण / ५५