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अफ्रीका को उनकी महान देन
अप्पा पंत
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श्री काकासाहेब और मेरे पिताजी - राजा भवानराव पंत, औंध के राजासाहब - का परिचय बहुत पुराना था । किन्तु अपने राज्य के नये संविधान के विषय में महात्माजी का परामर्श लेने मेरे पिताजी सेवाग्राम गये, तब मैं काकासाहेब से प्रथम बार मिला । प्राचीन राजा-महाराजाओं की पुनीत परम्परा के अनुसार मेरे पिताजी अपने राज्य का त्याग कर उसे प्रजा के नाम करके एक साक्षी, मार्गदर्शक और 'प्रथम सेवक' के नाते ही रहना चाहते थे ।
सेवाग्राम के हमारे एक सप्ताह के निवास के दरमियान रोज सुबह राज्य के त्याग के तात्विक और आध्यात्मिक पहलुओं पर पिताजी और काकासाहेब की चर्चाएं होती रहीं । इन सब बातों से काकासाहेब इतने प्रसन्न और पुलकित हो गये कि उसी क्षण से मुझे बेटे के समान अपना लिया । महात्माजी के साथ की मेरे पिताजी की हुई स्मरणीय भेंट के बाद जब-जब सेवाग्राम गया, मैं हमेशा काकासाहेब का प्रेरणादायक और सच्चा परामर्श लेता रहा। खासकर १६४२ की 'भारत छोड़ो' के भूमिगत आंदोलन के समय जब छोटा-सा औंध, सतारा और कोल्हापुर की 'प्रति सरकार' का केन्द्र बना हुआ था, उन दिनों जब नाना पाटिल, रत्नाप्पा कुंभार, वसंतराव पाटिल जैसे नेता कई बार औंध के गांवों में आश्रय लेते थे । तब काकासाहेब की सलाह ने और प्रबोधक मार्ग दर्शन ने हमारे आंदोलन को प्रयोजनों के उचित संदर्भ में प्रस्तुत किया ।
विदेशों में स्वतंत्र भारत का प्रतिनिधि होकर जब मैं अफ्रीका गया, तब काकासाहेब ने पूर्व अफ्रीका, मध्य अफ्रीका और ( उस समय के) कांगों की यात्रा की। लगभग छः महीने वह हमारे बीच रहे।
अफ्रीका में काम करने वाले हम सब के लिए कैसी तेजस्वी और प्रेरणात्मक थी वह कालावधि । इस 'सूर्योदय के देश' (कान्टीनेंट ऑफ डॉन - काकासाहेब इसी नाम से अफ्रीका का उल्लेख करते रहे) और भारत के बीच मंत्री उत्पन्न करने के काम को काकासाहेब ने नया ही आयाम दिया ।
मनुष्य- मनुष्य के बीच स्नेह-सम्बन्ध का विकास करने में धर्म, वंश, संस्कृति या जाति के भेद उनके लिए कभी बाधक नहीं हुए हैं। उनके लिए विविध रंग मिलकर जीवन का एक अधिक सुरंगी और सन्तोषजनक चित्र उत्पन्न करते हैं। अपनी विविध सभाओं में- अंग्रेज, अफ्रीकी, भारतीय और अरबी श्रोतागणों के सामने काकासाहेब इस विषय का अत्यन्त सौन्दर्य के साथ और हृदय को छू जाने वाली भाषा में अपने विचारों का विकास करते रहे। वह मराठी में, गुजराती में, हिन्दी और अंग्रेजी में बोलते थे । वह एक कवि की तरह बोलते थे – एक माता के वात्सल्य से बोलते थे । हंसते- समझाते प्रेरणा देते । सौम्यभाषी, ताजे विचार, चित्रों को दर्शाते — जो सुननेवाले को स्पर्धा, हानि-लाभ, सत्ता संघर्ष और दुर्दशा की दुनिया से कहीं दूर उड़ा ले जाते ।
अफ्रीका में बसनेवाले भारतीयों ने काकासाहेब की स्पष्ट दृष्टि के द्वारा प्रथम बार अनुभव किया कि अफ्रीकी मनुष्य के हृदय में भी सौन्दर्य और स्नेह बसते हैं । तब तक अधिकतर भारतीयों के लिए अफ्रीकी मात्र एक नौकर ही था, बर्तन मांजनेवाला और जूते साफ करने वाला, जिसके साथ चिल्लाकर ही बात की सकती थी और जो मानो अभी-अभी पेड़ से उतरकर आया हो ! काकासाहेब के प्रवचनों से इस दृष्टि में धीरे-धीरे किन्तु निश्चित सुधार आने लगा। जिस तरह से अफ्रीकी लोग जोमो कैन्याटा, न्येरेरे, म्बोया जैसे नेता से लेकर साधारण अशिक्षित नौकरों तक काकासाहब के प्रवचनों को मंत्र-मुग्ध होकर सुनते थे । यह
व्यक्तित्व : संस्मरण / ५१