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जीवन-समन्वय
कुमारी सरोजिनी नाणावटी
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पूज्य काकासाहेब के प्रथम दर्शन मुझे करीब इकतालीस वर्ष पहले १९३८ में हुए - मेरी अभिन्न- हृदय मुस्लिम बहन कुमारी रेहानाबहन तैयबजी द्वारा।
जैसे-जैसे मैं काकासाहेब के नजदीक आई, मैंने देखा कि समन्वय उनकी प्रधान जीवन-साधना है । उसके मूल में है आस्तिकता । मनुष्य में श्रद्धा, उसकी भलाई में श्रद्धा, बहुत गिरे हुए मनुष्य में भी निहित, सुप्त शुभवृत्ति पर की श्रद्धा और हरेक के साथ आत्मैक्य का अनुभव करने की उत्कट इच्छा ।
बहुत छुटपन में एक हरिजन बालक के साथ काकासाहेब ( दत्तु ) खेल रहे थे । घर के किसी बड़े ने देख लिया। वहीं आंगन में बड़े उनको सिर पर से स्नान करवाया और फिर घर में लिया। छोटे-से दत्तु के मन को बड़ी ठेस लगी। अपने जैसे ही लड़के को छूने पर स्नान क्यों करना पड़े? आगे चलकर जब स्कूल जाने लगे तब शाला के वार्षिकोत्सव समिति के वे मंत्री नियुक्त हुए। सम्मेलन में उन दिनों रिवाज था कि भोजन के समय विद्यार्थी पंक्ति में बैठते थे तब पहले ब्राह्मण लड़के फिर अन्य हिन्दू लड़के और अन्त में गैर-हिन्दू लड़के बैठते थे । परोसने का आरंभ हमेशा ब्राह्मण लड़कों से शुरू होता था । पंक्ति के अन्त तक पहुंचते खाना ठंडा हो
जाता था ।
दत्तात्रेय ने कहा, "ऐसा मैं बिलकुल नहीं चलने दूंगा । खाना परोसने का काम पंक्ति के दोनों छोरों से, बारी-बारी से शुरू होगा। किसी के प्रति अन्याय या तिरस्कारयुक्त बर्ताव मैं सहन नहीं करूंगा ।" तबसे यह सुधार हो गया और लड़कों में ऐसा भेद-भाव अप्रतिष्ठित हो गया ।
जब कालेज में आये तब तक तो काफी चिंतन-मनन हो चुका था और संकल्प पूर्वक समन्वय की राह काकासाहेब ने ली थी। जो दूर के हों—अकेले हों उनको खास अपनाना यही उनकी वृत्ति थी। इसीलिए जब तेजस्वी जीवत राम कृपालानी को सिंध के कालेज से और बाद में बंबई के विल्सन कालेज से निकलना पड़ा और पूना की फर्ग्युसन कालेज में दाखिल हुए, तब काकासाहेब ने उनसे जान-पहचान करके दोस्ती बढ़ाई । और तबसे आज तक वह दोस्ती निभाई है।
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कालेज शिक्षा पूरी करने के बाद काकासाहेब कुछ दिन के बाद बड़ौदा गये और वहां के राष्ट्रीय गंगनाथ विद्यालय के आचार्य बने वहां महाराष्ट्री लड़के गुजराती ब्राह्मण के हाथ का पकाया भी नहीं खाते थे। यह रिवाज सर्वमान्य था किन्तु यह बात काकासाहेब को कैसे सहन होती हिम्मतपूर्वक उन्होंने गुजराती ब्राह्मण को रसोई करने के लिए रखने का तय किया करीब सब विद्यार्थी और शिक्षक विद्यालय छोड़ जाने को तैयार हो गये। फिर भी काकासाहेब नहीं डिगे। धीरे-धीरे एक-एक करके सब विद्यार्थी वापस आ गये ।
जब गंगनाथ विद्यालय बन्द हो गया और दूसरी कोई राष्ट्रीय सेवा करना शक्य नहीं था, तब काकासाहेब हिमालय की यात्रा को निकले। उस ढाई साल की पैदल यात्रा में उन्होंने श्री रामकृष्ण मिशन के मूर्धन्य लोगों से बहुत नजदीकी व आत्मीयता बड़ाई। उन्होंने काकासाहेब को दीक्षा लेने का सुझाया था। दीक्षा तो नहीं ली किन्तु अपने को रामकृष्ण भक्त मानने लगे और रामकृष्ण मिशन के लोग भी उनको 'रामकृष्ण 'बॉय' मानते थे।
हिमालय जाकर वहां गहरी साधना की। देश की स्वतंत्रता का उत्कट ख्याल ही उनको हिमालय से ४८ / समन्वय के साधक