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________________ अधिक प्रभाव श्री रामकृष्ण के प्रति कृपालानी के भक्तिभाव का हुआ था। काकासाहेब ने राधाकृष्ण का 'दि हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ', 'मॉडर्न सिम्पोजियम', 'लेटर्स ऑफ जॉन चाइनामैन' इत्यादि पुस्तकें हमारे साथ पढ़ीं। कलाविषयक भी कई व्याख्यान उन्होंने दिये। उन सबमें से मुझे कई बिल्कुल नई बातें ज्ञात हुईं। किन्तु उन व्याख्यानों में से मिली हुई जानकारी से अधिक व्याख्यानों के अंत में जिस वृत्ति विकास का मैंने अनुभव किया वह मुझे आज ज्यादा कीमती मालूम होता है । काकासाहेब में भी विद्वत्ता है, यह उनके व्याख्यानों में देख सका । उनके प्रति और जिनकी पुस्तकें वे बहुमान से पढ़ते, उन लेखकों के प्रति मेरा आदर बढ़ने लगा । हम लोग खूब शरारत किया करते थे। हमारी इन शरारतों के बारे में काकासाहेब बेशक जानते होंगे, किन्तु कुछ कहते नहीं थे किन्तु एक दिन हद हो गयी। प्रदर्शन तो हमेशा के जैसा ही था, हास्य विनोद भी हमेशा के जैसा था। कमरे के आसपास हम प्रदर्शन का फायदा उठा रहे थे। इतने में काकासाहेब बड़े गंभीर होकर नीचे उतर आये। हम सब शान्त हो गये । अकल्पनीय संयम और गांभीर्य से उन्होंने कहा, "आज रमणभाई का देहान्त हुआ है, ऐसा विनोद आज आपको शोभा नहीं देता!" और तब से हमारी शरारतें सदा के लिए समाप्त हो गई। काकासाहेब के व्यक्तित्व का बड़ा गंभीर प्रभाव मेरे मन पर पड़ा। विद्यार्थियों का दंगा कहा जा सके ऐसा एक छोटा-सा प्रसंग याद आता है। उस समय जिस दक्षता से काकासाहेब ने काम लिया, वह मुझे बराबर स्मरण है। बारडोली का सत्याग्रह चल रहा था । विद्यापीठ के कई विद्यार्थी उसमें भाग लेने गये हुए थे। शहर में बारडोली दिन मनाया जा रहा था और सर्वत्र हड़ताल थी । हमने भी छुट्टी की मांग की ऐसी हड़ताल की मांग विद्यापीठ में शायद यह प्रथम ही थी काकासाहेब ने प्रवचन में समझाया, "अन्य शाला के विद्यार्थी और विद्यापीठ के विद्यार्थी समान कक्षा के नहीं हैं। सरकार और राष्ट्र के बीच जो गज-ग्राह चल रहा है उसमें सरकार के पक्ष में खड़े लोग अपनी पकड़ ढीली कर सकते हैं। सरकारी शिक्षा लेने वालों को हड़ताल करना जरूरी है। हम तो सरकार के विपक्ष में हैं। हम पकड़ ढीली नहीं कर सकते। हमें तो अधिकाधिक जोरों से खींचना चाहिए।" इसके बाद हमने छुट्टी की मांग छोड़ दी । तत्पश्चात् बारडोली का अभिनंदन करने वाला एक काव्य लिखकर काकासाहेब के पास मैं ले गया । उसमें 'लड़ते रहो, जूझते रहो' ऐसी पंक्ति थी। यह सुनकर काकासाहेब ने जरा-सी टीका की, "हां, उसको कहो 'तुम लड़ो, खतम हो जाओ, और हम यहां बैठे-बैठे तुम्हारी कविता करेंगे ! ऐसा ही न ?” उनकी बात मेरे ध्यान में आ गयी। मैंने कहा, "नहीं, ऐसा तो ख्याल भी हमें नहीं हो सकता ।" और 'हम सब साथ लड़ेंगे, जूझेंगे' इस तरह की पंक्ति मैंने बनायी । 1 सब विद्यार्थियों का विकास करने के लिए काकासाहेब ने बहुत प्रवृत्तियां शुरू कीं। रात को तारादर्शन कराने लगे। यह मुझे बहुत पसंद था। जाड़े की ठिठरती रात में हम छत पर जाते ठेठ पैरों तक पहुंचने वाले गरम ओवरकोट पहनकर काकासाहेब आते थे और तारों का परिचय करवाते थे। मैंने पहली बार तारों को पहचाना — और साथ ही साथ काकासाहेब कोट पहने जितने अर्वाचीन हैं, यह देखकर खुशी भी हुई। पता नहीं यह कैसे हुआ, लेकिन काकासाहेब के साथ मैंने रवीन्द्रनाथ टैगोर की 'साधना' पढ़ने का प्रारम्भ किया। हम दो ही पढ़ने बैठते काकासाहेब के सान्निध्य का यह मेरे लिए उत्तम प्रसंग था जितना 'साधना' के सौन्दर्य के बारे में, जगत के शाश्वत ऋत के बारे में कई चित्र और दृष्टांत मुझे बहुत आकर्षक मालूम हुए थे; किन्तु टैगोर की वह 'साधना' किंवा काकासाहेब की साधना मेरी प्रकृति के अधिक अनुकूल न थी। जो हो, हमारी 'साधना' पूरी हुई। किन्तु उसमें से मैं एक बात सीखा, जो अभी याद है मैं पड़ता तब ४६ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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