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पड़ते ! बाद में हम भी यह सबक सीख गये।
छात्रालय के विद्यार्थी जी चाहे वहां अपने कपड़े सुखाने डालते और महाविद्यालय के चलते समय लहराती धोतियों का दृश्य बहुत रम्य तो नहीं ही था। काकासाहेब ने अपने-अपने कमरों में ही कपड़े सुखाना हमें सिखाया। उसके लिए ऊपर छत पर खास व्यवस्था भी करवा दी। उनके आने के बाद पेशाबघरों की हालत सुधर गयी। शौचालयों में उपयोग के बाद मिट्टी डालने की व्यवस्था हो गयी। रसोईघर में भी काफी सुधार हुआ, जिससे खर्चा भी कम हुआ।
काकासाहेब ने आकर पाठ्यक्रम में उद्योगों को सम्मिलित किया और कताई को नियमित और अनिवार्य बनाया। इसके लिए उनको काफी मेहनत करनी पड़ी होगी, किन्तु कुल मिलाकर उद्योग हमें--खासकर मुझे तो-काफी अच्छे लगे थे। बढ़ई के काम और बुनाई के लिए नये शिक्षक आये।
विद्यापीठ में प्रतिदिन प्रार्थना होती । बाद में वर्ग शुरू होते । काकासाहेब आये उसके बाद प्रार्थना के संगीत में उनके प्रवचन शामिल हुए और कुछ समय बाद हरेक ने कितने तार काते, उसका हिसाब भी शुरू हुआ।
अहमदाबाद में गांधीजी के कार्य का कृपालानी ने तीन तरह से वर्गीकरण किया था-आश्रम, विद्यापीठ, और सरदार की म्युनिसिपंलिटी। आश्रम था कठोर तपोभूमि । गांधीजी के कार्य को ठोस भूमिका पर मूर्त करने का काम सरदार करते थे। विद्यापीठ में संसार और तपोवन दोनों का समन्वय था। तदुपरान्त बुद्धिस्वातंत्र्य की विशाल पीठ-भूमिका पर शुद्ध संस्कार की उपासना था। काकासाहेब के आते ही जैसे विद्यापीठ पर आश्रम का आक्रमण होता दिखाई दिया । उद्योग की हिमायत में बुद्धि की तराजू मानो हल्की मानी गई। यह बात अगरचे बिल्कुल सच्ची तो नहीं थी, किन्तु बुद्धि-स्वातंत्र्य के ऊपर मर्यादा तो अवश्य आ गयी। विद्यापीठ के द्वैमासिक 'साबरमती' और हस्तलिखित 'पंचतंत्र' दोनों पर सेन्सरशिप लागू हो गयी। विद्याथियों की सभा आचार्य के कड़े आधिपत्य में आयी । पुस्तकालय में से हेवलॉक एलिस की पुस्तकों को उठाकर अदेय विभाग में रख दिया गया और मॅकफॅडन के 'फिजिकल कल्चर' मंगवाना बंद हुआ।
इस सारी नयी व्यवस्था को चाहे कैसी मानें, समय बीतने पर मनुष्य को हर चीज की आदत हो जाती है और विपरीत लगने वाली परिस्थिति भी विकास के लिए पोषक बनती है। सेन्सरशिप के बंधन में आई हुई 'साबरमती' का मैं पहला संपादक था और मेरे दिमाग में अब तक स्वतंत्रता की धुन थी। मासिक का लेख दिखाया तो क्या और न दिखाया तो भी क्या, ऐसी शिथिल मनोवृत्ति से मैंने कुछ लेख सेन्सर को बिना बताये ही छपवा दिये। फिर क्या था ! काकासाहेब की कठोरता का मुझे पहला अनुभव हुआ। छपे हुए लेखों में से एक में अहिंसा के विरुद्ध माना जाय, ऐसा कुछ था । वह भी लेखक की कलम भूल ही थी। मैंने काकासाहेब से कहा, "शुद्धि-पत्र में सुधार देंगे या फिर उस पर स्याही छपवा देंगे।" ऐसा न करने का काकासाहेब का खंडन मुझे चमत्कारी लगा। उन्होंने कहा, "आप कुछ भी करें, किन्तु पढ़ने वाले का ध्यान उससे खिचेगा। और कुछ अनिष्ट की आशंका उसके मन में रह जायेगी।" अपने इस तर्क से उन्होंने मुझे बिल्कूल जीत लिया। उनकी आज्ञा से मैंने वह पूरा पन्ना फिर से छपवाया।
काकासाहेब के विधि-निषेधों की धीरे-धीरे आदत हो गयी। हम सब उत्साह से कातने लगे, उद्योग के समय में लकड़ी तराश कर चीजें बनाते, प्रार्थना के बाद उनके प्रवचन सुनते और खादी के तारों का हिसाब भी करवाते । कला पर नीति की, नये आचारों की विजय ही कहलायेगा।
हमारे अभ्यासक्रम के उपरांत उन्होंने कई खास वर्ग शुरू किये । कृपालानी भी वैसा करते थे। इस तरह उनके पास से हमने 'इन मेमोरियम' और रामकृष्ण के वचनामृत सीखे थे। श्री रामकृष्ण के वचनों से भी
व्यक्तित्व : संस्मरण | ४५