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देश का कोई भी भाग अथवा विश्व का कोई भी देश आज ऐसा नहीं है, जो उनके लिये पराया हो; कोई भी धर्म ऐसा नहीं, जिसके लिए उनके हृदय में आदर न हो। वह भारतीयता के उस अधिष्ठान पर खड़े हैं, जो किसी देश विशेष का अधिष्ठान नहीं है, समूची मानवता का अधिष्ठान है, जिसमें जाति, भाषा, धर्म, राष्ट्रीयता के विलगाव के लिए कोई स्थान नहीं है । वे 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के समर्थक हैं, अर्थात वे सबके हैं, सब उनके हैं ।
यह महान सिद्धि व्यक्ति को तभी प्राप्त हो सकती है, जबकि उसका हृदय निर्मल हो, उसमें पूर्वाग्रह न हो और तानाशाही मताग्रह न रखता हो । काकासाहेब का हृदय निर्मल है, उनमें पूर्वाग्रह नहीं है, पर मताग्रह रहा। हिन्दुस्तानी, देवनागरी लिपि, नई तालीम आदि के विषय में उनके मताग्रह को जानते हैं, लेकिन आगे चलकर जब उनकी समन्वय-बुद्धि अधिक विकसित हुई तो उनके मताग्रह अपने आप गल गये ।
काकासाहेब का सारा जीवन साधक का जीवन रहा है । साधक कभी और कहीं भी रुकता नहीं, उपनिषद की 'चरैवेति-चरैवेति' की प्रेरणा के अनुसार वह निरंतर चलता ही रहता है। उनका जीवन प्रयोगों की लम्बी कहानी है। उन प्रयोगों के कारण उनकी तीव्र से तीव्र आलोचनाएं हुईं, कठोर से कठोर आक्षेप उनपर किये गये, लेकिन काकासाहेब उनसे विचलित न हुए। जिसे सही माना, उसे लेकर निर्भीकता तथा दृढ़ता अपने मार्ग पर अग्रसर होते गये। किन्तु आगे चलकर जब उन्होंने देखा कि देश का मानस उन प्रयोगों के लिए अनुकूल नहीं है, उन्हें ग्रहण नहीं कर पा रहा है तो उन्होंने बिना किसी कटुता के उनको इस प्रकार छोड़ दिया जैसे कोई बालक खेल-खेल में अपने हाथ के खिलौने को पटक देता है।
व्यक्ति के लिए सबसे कठिन काम अपने आग्रह को छोड़ना होता है; क्योंकि आग्रह के साथ उसका अहंकार जुड़ जाता है और वह उसके लिए मान अपमान का प्रश्न बन जाता है। काकासाहेब के लिए छोटेसे छोटा या बड़े से बड़ा मसला कभी मान-अपमान का प्रश्न बना हो, ऐसा एक भी प्रसंग मुझे याद नहीं आता ।
संसार का कोई भी देश कदाचित ऐसा बचा हो, जहां काकासाहेब न पहुंचे हों। संयोग से उन अनेक देशों में जहां काकासाहेब हो आये हैं, मुझे भी जाने का अवसर प्राप्त हुआ है। उन देशों के निवासी आज भी काकासाहेब को याद करते हैं, उनके दृष्टिकोण की व्यापकता, उनके हृदय की विशालता, उनकी ओजस्वी वाणी और प्रेम-भरे शब्दों की इतनी गहरी छाप उन लोगों के हृदय पर पड़ी है कि वे काकासाहेब के आगमन की आज भी उत्सुकता से बाट जोहते हैं ।
काकासाहेब चिर-प्रवासी हैं । इतनी अवस्था तक प्रवास उनके लिए आनंददायक है। अपनी पुस्तक 'परम सखा मृत्यु' में उन्होंने बड़े पते की बात लिखी है, लोग पूछते हैं, "अपनी दीर्घायुता का कारण बताइये । आज भी आप सतत कर्मशील हैं, लगातार मुसाफिरी करते रहते हैं, तनिक भी अप्रसन्न या थके हुए मालूम नहीं होते, इसका क्या कारण है ?"
"अपने बारे में कोई बड़ा दार्शनिक या गंभीर जवाब देना मेरे लिए रुचिकर नहीं हैं। मैं चिर-प्रवासी तो हूं ही इसका लाभ लेकर मैंने विनोद में कहा, जवाब आसान है। मैंने मृत्यु का चिन्तन तो काफी किया है, लेकिन मृत्यु की चिन्ता मैं नहीं करता । अब ये दो मेरे पीछे पड़े हैं, मुझे पकड़ना चाहते हैं, एक है 'बुढ़ापा' दूसरा है 'मृत्यु' । ये दोनों काफी थके हुए हैं, पर पीछे तो पड़े ही रहते हैं। मुझे लेने कहीं पहुंच जाते हैं और लोगों से पूछते हैं कि फलां आदमी कहां है ? लोग कहते हैं, 'अभी कल यहां थे, लेकिन पता नहीं यहां से कहां चले गये।' दरियाफ्त करके, मेरा पता पाकर, नये स्थान पर हांफते - हांफते मुझे लेने पहुंचते हैं। वहां पर भी उन्हें वही अनुभव होता है । लोग कहते हैं, 'आपने थोड़ी-सी देरी की। अभी यहां पर थे, लेकिन पता नहीं, यहां से कहां चले गये । "
४२ / समन्वय के साधक