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________________ को मान गये। उन्होंने कहा, "इसका प्रयोग करके देख लो। कांग्रेस वाले न खद काम करेंगे, न करने देंगे।" प्रस्ताव मैंने पास करा लिया और पांच व्यक्तियों की एक कमेटी प्रस्ताव को कार्यरूप में परिणत करने के लिए नियुक्त हुई ; जिसके सदस्य थे--टी०सी० गोस्वामी, लाला लाजपतराय, सरोजनी नायडू, डाक्टर अन्सारी और मैं। मैंने योजना बनाई भी, पर मामला आगे नहीं बढ़ सका और आगे चलकर जब प्रवासी विभाग कायम हुआ भी तो उससे केवल पच्चीस रुपये महीने मुझे दो-ढाई साल मिले। बाद में वे भी बन्द कर दिये गए! बापू की बात बहुत ठीक.निकली, फिर भी मैं काकासाहेब का ऋणी हं क्योंकि उनके परामर्श के अनुसार काम करने पर मुझे बहुमूल्य अनुभव प्राप्त हुआ। प्रवासी भारतीयों का कार्य इस समय काफी महत्त्व रखता है। दुर्भाग्य की बात यही है कि महात्मा गांधी, दीनबन्धु एण्ड्रयूज, माननीय श्रीनिवास शास्त्री, भगवतीदयाल संन्यासी, सदाशिव गोविन्द वजे और कोदण्ड राव, पं० हृदयनाथ कुंजरू के चले जाने के बाद कोई उनका नामलेवा न रहा। यदि प्रवासी भारतीयों में कोई साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्य करने की योजना बनाई जाये तो काकासाहेब का नेतृत्व उसके लिए सबसे प्रेरणाप्रद होगा। वे बड़े उदार विचारों के हैं, और समन्वय उनके जीवन का मूल सिद्धान्त है, जिसकी प्रवासी भारतीयों को अत्यन्त आवश्यकता है। काकासाहेब प्रशंसा के भूखे नहीं हैं। उन्हें किसी प्रमाण-पत्र की जरूरत नहीं है, बल्कि वे उस स्थिति पर पहुंच चके हैं, जबकि उनके कथन दूसरों के लिए प्रमाण-पत्र सिद्ध होते हैं। राज्य सभा में गुजरात विद्यापीठ के तीन अध्यापक सदस्य थे। काकासाहेब, प्रो० मलकानी साहब और मैं । विद्यापीठ के पुराने छात्र डाह्याभाई थे, जिनकी बड़ी बहन मणीबहन लोकसभा में थीं। मलकानीसाहब बड़े प्रतिष्ठित हरिजन सेवक थे और उन्होंने हरिजनों के लिए बहुत काम किया। खेद की बात है कि उनके स्वर्गवास का समाचार एक महीने के बाद इधर के पत्रों में छपा और उससे अधिक दुःख की बात यह हुई कि श्री वियोगी हरिजी तथा काकासाहेब को छोड़कर किसी ने भी उनपर कुछ नहीं लिखा। दुर्भाग्यवश हम लोगों के कई शिष्य, जो विद्यापीठ में हम लोगों से पढ़े थे, अकाल में ही स्वर्गवासी हो गये। काकासाहेब ने उन सबको श्रद्धांजलि अर्पित की। काकासाहेब के संस्मरण-पर्यटन सम्बन्धी लेख-विशेष महत्त्व रखते हैं। अपनी यौवनावस्था में काकासाहेब ने काफी पैदल भ्रमण किया था। हिमालय के जिन दुर्गम स्थलों पर वे पहुंचे थे, उनपर बहुत कम लोग पहुंच पाते हैं। हम लोग इस मंत्र को “चरैवेति-चरैवेति" बार-बार दुहराते तो हैं, पर उसके अनुसार काम काकासाहेब ने ही किया है। काकासाहेब यात्रा-प्रिय हैं। प्रारम्भ में उनकी यात्राओं के महत्त्व को बापू भी नहीं समझ पाये, पर वे तुरन्त ही काकासाहेब की प्रवृत्ति को समझ गये। वे सच्चे अर्थों में परिव्राजक हैं। वे भारत के सांस्कृतिक राजदूत हैं । कई जापानियों को उन्होंने हिन्दी पढ़ने का आदेश दिया था। वे पूर्व अफ्रीका और गयाना आदि की यात्रा कर चुके हैं। जापान तो वे पांच-छः बार जा चुके हैं। प्राकृतिक स्थल जितने काकासाहेब ने देखे हैं, उतने शायद ही किसी ने देखे होंगे। आवश्यकता इस बात की है कि उन वृतान्तों को एक संग्रह में प्रकाशित करा दिया जाय। काकासाहेब के जो महत्त्वपूर्ण लेख नियम-पूर्वक 'मंगल प्रभात' में छपते थे. वे उसी पत्र तक सीमित रह जाते थे। मेरे मन में कई बार यह विचार आया कि उन लेखों को टाइप कराके मैं अन्य हिन्दी पत्रों को भी भेजूं, पर मैं ऐसा नहीं कर सका। बड़े दुर्भाग्य की बात यह हुई कि सर्वोदयी लेखकों के बीच कोई संयोजक नहीं रहा। स्व० धीरेन्द्रभाई उच्चकोटि के चिन्तक थे। पर उनके लेख भी प्रचारित नहीं हए। हिन्दी-प्रचार के लिए सबसे अधिक कार्य मराठी भाषा-भाषियों ने ही किया है। लोकमान्य तिलक, व्यक्तित्व : संस्मरण | २६
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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