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________________ प्रभुदास गांधी को ' प्यारे आणंद, रामनवमी, सन् १९२३ प्रभुदास, तुम मेरी परेशानी समझ सकते हो, इसलिए तुम्हें चन्द्रशंकर के हाथ से पत्र लिखवाऊं तो तुमको बुरा नहीं लगना चाहिए। तुम्हारा बड़ा पत्र में ध्यान से पढ़ गया। उसके २८ पन्ने गिने लम्बी चिट्ठी का मजाक किया, लेकिन मज़ाक तो मेरे स्वभाव का ऊपरी स्तर है अथवा ऊपरी तरंग है, ऐसा कहो तो भी चलेगा। सही बताऊं तो मुझे तुम्हारा पत्र लम्बा लगा ही नहीं। क्या तुम्हारे साथ घंटों तक बात करते हुए मैं थक जाता हूं ? तब तुम्हारा पत्र मुझे लम्बा कैसे लगेगा ? मुझे रोज लम्बे-लम्बे पत्र लिखो तो आनन्द पढ़ें, यही नहीं, उस आनन्द से मेरा कुछ खून भी बढ़ेगा । विद्यार्थी लोग स्वाश्रयी बनें, यह तथ्य हमें अपना ही लेना चाहिए। लेकिन आज की देश की आर्थिक हालत देखते हुए बाजार की दृष्टि से प्रामाणिक विद्यार्थी कदाचित् ही स्वाश्रयी हो सकता है। नैतिक दृष्टि से विद्यार्थी स्वाश्रयी बनें, इतना ही पर्याप्त है । विद्यार्थी पांच घण्टा कातें अथवा और कोई मजूरी करे और उस मजूरी के द्वारा समाज को अत्यन्त उपयुक्त ऐसा काम दें तो वह नैतिक दृष्टि से स्वाश्रयी बना माना जाएगा। परंतु इन पांच घण्टों में वह अपनी उदरपूर्ति के लिए न भी कमा सके। इस विषम स्थिति में ही पाप का मूल और दुनिया का दर्द रहा हुआ है। निष्पाप मजूरी के द्वारा प्रत्येक मनुष्य यदि पांच घण्टे में अपनी सारी आवश्यकताएं पूरी तरह पा सके तो हिन्दुस्तान के सामने कुछ प्रश्न रहा ही नहीं है, ऐसा मानना होगा । अर्थात् हमारे विद्यार्थी और अध्यापक नैतिक दृष्टि से स्वाश्रयी हों, फिर भी हमें आजीविका के लिए समाज से लेना रहेगा ही । अध्यापक वेतन लेते हैं, लड़के घर से पैसा लाते हैं । मेरा पुराना अनुभव ऐसा है कि घर से १५ या २० रुपये लाने वाले लड़कों की तुलना में घर से १०-१२ रुपये ही ला पाने वाले लड़के ज्यादा मंजेसजे हुए होते हैं। उनके द्वारा राष्ट्रीय शिक्षण का प्रचार अधिक हो सके, ऐसा है । वे ही देहात में रहने के लिए अधिक योग्य होते हैं । ऐसे विद्यार्थियों की संस्था सहायता करे- दान या कर्ज के रूप में नहीं, लेकिन जो काम करे, इसकी बाजारू कीमत नहीं, किन्तु नैतिक दृष्टि से कीमत करके उसकी मजूरी के रूप में वे, इससे हम मुफ्तखोर हैं, ऐसा खयाल लड़कों को नहीं आयेगा । परंतु इस पद्धति के लिए एक फण्ड बनाना होगा। बापूजी इस प्रकार का फण्ड पसन्द करेंगे ही, ऐसा भरोसा नहीं है । फिर भी वहां आऊंगा तब बापूजी के साथ इसकी चर्चा करूंगा । विद्यालय के लिए मैं क्षेत्रसंन्यास तक लेने को तैयार हूं अर्थात् विद्यालय से बाहर न जाऊं, तुम कहो तो बाहरगांव तो क्या, लेकिन अहमदाबाद भी न जाऊं। सुरेन्द्रजी ने तुम से ठीक ही कहा था कि अब से तुम अगर प्रकृति का काम करो तो साक्षी - अध्यक्ष - पुरुष का काम मैं कर सकूंगा । सुरेन्द्रजी जैसे वेदान्त प्रवीण को ऐसी ही उपमा सूझेगी, परंतु यह ठीक बैठती है । तुम्हारे पत्र मिलते हैं, उतने पढ़ लेता हूं। किशनलालभाई विद्यालय में फिर से लौट आवें, उसके लिए मैं लालायित हूं । विद्यापीठ में ही काम करना, ऐसा मोह किशोरलालभाई को भी नहीं है, किन्तु मैं १. गांधीजी के भतीजे के पुत्र, काकासाहेब के विद्यार्थी पत्रावली / २८६
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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