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गांधी जी को
चिंचवड,
१७-११-२५ पूज्य श्री बापूजी की पवित्र सेवा में,
आपका पत्र स्वामी के साथ आया सो पढ़ा। विद्यार्थियों में बिगाड़ है, यह बात मेरे लिए नयी नहीं है। उसका इलाज, अपने ढंग से, मैं कर ही रहा था।
आश्रम में हम बड़े लोग अपने वायुमंडल से बच्चों को प्रभावित करने की शक्ति बहुत-कुछ खो बैठे थे। और हम यदि कुछ भी करें तो उसे आप से छिपाने की आवश्यकता तो थी ही। सबके अपराध अपने सिर लेकर कुछ आसुरी प्रायश्चित्त कर लेने की आपकी आदत हमें कम पीड़ा नहीं देती । आपके प्रायश्चित्त के द्वारा हमारे पापी अन्तःकरण कितने पवित्र बने हैं, यह तो ईश्वर ही जाने, किंतु हम आपसे डरते रहना तो जरूर सीखे हैं । कितनी ही बार मन में उठता था कि ऐसी कृत्रिम परिस्थिति में रहने से बेहतर है कि यहां से भाग निकलें। लेकिन इतनी हिम्मत लायें कहां से !
आपने क्या सोचा है ? हम सब मिट्टी के पुतले ही हैं कि आप जैसा आकार देना चाहें वैसा हम धारण न करें तो सारा दोष कुम्हार का?
पूज्य श्री बापूजी, इसमें मैं सूक्ष्म किन्तु जबरदस्त अहंकार देखता हूं। यह मेरा अभिप्राय आज का नहीं है। जब-जब आपने कहा है कि "मुझमें ही अहंकार नहीं होगा तो तुम सबमें कहां से आयेगा।" तबतब यही विचार मन में आया है। आप में हो तो भी हमारे में क्यों आना ही चाहिए? हम में क्या कोई पाप नहीं है ? क्या हम सीधी नली हैं कि जो प्राण हममें आप फूकें सो सरल-सीधा हम में बहे जाय ? मेरे विचार में शायद दोष हो, इस डर से आज तक मैं उसे प्रकट करते हिचकिचाता था। हम स्वतंत्र हैं, अनुभवों से ठोके पीटे जाने के बाद हम आपके पास आये हैं। हमारे पुराने पाप आप कहां जानते हैं ? उन पापों से बचने के प्रयत्नों में आपके चरणों तक आये हैं। लेकिन क्या हमें अपना सारा बोझ आपको सौंप देना चाहिए ? आप मानते हैं, ऐसे हम नहीं हैं, वैसे होने की कोशिश करनेवाले हैं। लेकिन यदि हमारे सब पाप आप अपने मानने का आग्रह रखेंगे तो हमें वह सहन नहीं हो सकेगा। 'नवजीवन' में आप लिखते हैं कि "सत्याग्रहाश्रम के सब दोष मेरे अपने हैं। सत्याग्रह आश्रम से मैं बढ़िया नहीं हूं।" ऐसा लिखकर आप हमारे जीवन को असह्य कर देते हैं।
आपने स्वयं सात दिन का उपवास शुरू करके मेरी अच्छी कीमत की है ! अब मेरी कोई जिम्मेदारी रही नहीं है ? क्या आप जीवित रहें तबतक हमें बिल्कुल बेफिकर होकर रहना है ?
इस समय आपके उपवास में, हमारे दोष अपने मानने में, मैं गीता का अभ्यास बिल्कुल नहीं देख सकता । अथवा तो गीता का मेरा अभ्यास बिल्कुल अलग होगा। शाला की सारी जिम्मेदारी आपने मुझ पर छोड़ी थी। जब-जब आपके और मेरे बीच मतभेद हुआ तब-तब आपने कहा है कि "जिम्मेदारी आप की है आपकी बात सही है।" यह वचन क्या सत्य नहीं था? स्वच्छन्द हमारा और प्रायश्चित्त की जिम्मेदारी आपकी, यह कहां का श्रमविभाग ?
पत्रावली | २८१