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________________ विश्व- समन्वय क्या और कैसे भारत भाग्य विधाता भगवान ने इस देश में करीब-करीब सब वंशों के सब धर्मों के और सब संस्कृतियों के लोगों को एकल ला छोड़ा है। हमने देखा कि यूरोप के सब बाशिंदे गोरे होते हैं, अफ्रीका के होते हैं, जापान के पीले होते हैं, अमेरिका के आदिवासियों की चमड़ी लाल होती है, लेकिन भारत में सब रंगों के, सब वर्णों के लोग पाये जाते हैं। यहां दूध के जैसे सफेद, केतकी जैसे पीले, शालग्राम के जैसे काले और इनके बीच के सब रंगों के लोग पाये जाते हैं। बहुत से लोग गेहूं के रंग के हैं। लेकिन सब लोग गेहूं खा नहीं सकते। किसी का चावल के बिना चल नहीं सकता । ज्वार, बाजरा खानेवाले लोग भी बहुत हैं; शाकाहारी भी हैं और मांसाहारी भी हैं । धर्मों के बारे में तो पूछना ही क्या ? पत्थर, पेड़, जानवर, भूत-प्रेत और पितर आदि की पूजा करनेवाले भी हैं और ध्यान में बैठकर निराकार निर्गुण परमात्मा का ध्यान करनेवाले वेदांती भी हैं और हमारे देवों की संख्या भारत की लोकसंख्या से भी कम नहीं है। दुनिया में एक भी ऐसी संस्कृति नहीं है जिसके प्रतिनिधि भारत में न पाए जाते हों। इस पर से इतिहास विधाता की योजना यही दीख पड़ती है कि या तो सबका समन्वय करके पारिवारिक सम्बन्ध से एक कुटुम्ब बनकर रहो, नहीं तो पागल बनकर एक-दूसरे से झगड़ा करके अपने ही देश में परराज्य के गुलाम बनकर के घृणित और लज्जास्पद जीवन व्यतीत करो । हम लोगों ने वंश के झगड़े किये धर्म के झगड़े किये, सांस्कृतिक झगड़े किये और इस नतीजे पर पहुंचे कि सबको इस देश में शांति से रहना है। यहां पर केवल आर्य और केवल अनार्य रह नहीं सकते । न कोई सबको मुसलमान कर सका, न ईसाई हम सब साथ रहते हैं किन्तु एक प्रजा और एक राष्ट्र बनकर रहने की कला हमने अभी तक आत्मसात् नहीं की है हो हमारे यहां सह-अस्तित्व है। हरएक धर्म, जन-समुदाय, पंच और फिरका अपने-अपने में संतुष्ट है। लोग कहते हैं, "हम औरों से विशेष मिलते-जुलते नहीं हैं सही ; किन्तु किसी से झगड़ा भी नहीं करते। हरएक अपना-अपना सम्भालकर अलग रह जाय तो इसमें किसी का क्या बिगड़ जाता ?" समन्वय कहता है कि सैकड़ों और हजारों वर्ष तक साथ रहकर अगर आप एक-दूसरे के साथ संस्कारों का लेन-देन नहीं करेंगे, अपनी विविधता कायम रखते हुए एक-दूसरे के साथ सहयोग नहीं करेंगे और हरएक अपनी ही तृती अथवा अपना ही बाजा बजायेगा तो उसमें से कोलाहल सुनाई देगा, विश्व-संगीत नहीं। रोज उठकर झगड़ा करते रहना, मार-काट करना तो बुरा है ही, लेकिन तुम्हारा मुंह पूर्व में, तो मेरा पश्चिम में ऐसा कहकर एक-दूसरे से विमुख होकर केवल सह-अस्तित्व से रहना यह भी मानवता का लक्षण नहीं । उसे हम निरोगी हालत नहीं कह सकते । निश्चय ही यह रोगी हालत है। एक ही देश में एक ही भूमि पर साथ रहते हुए परस्पर परिचय के द्वारा सहयोग नहीं करना, मानवता को विफल करना है । सहयोग द्वारा कमोबेश ओत-प्रोत हो जाना और लेन-देन बढ़ाते रहना यही है उत्तम सामाजिकता और यही है सच्ची धार्मिकता । भारतीय संस्कृति का रुख इसी दिशा में है । इतिहास कहता है कि हम लोग प्रथम सह-अस्तित्व से ही संतोष मानते हैं। लेकिन जबरदस्तों का असर होता ही जाता है। इस तरह भारतीय संस्कृति सम्मिश्र संस्कृति है। लेकिन इसमें शुरू से उच्च-नीच भाव मान्य रहा है। ब्राह्मण-क्षत्रिय अपने को श्रेष्ठ मानें, सवर्ण अवण को दूर रखें, मुसलमान औरों को काफिर कहकर तुच्छ समझें, ईसाई लोग अपने को सर्वश्रेष्ठ मानें, गोरे लोग विचार चुनी हुई रचनाएं / २५९
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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