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गड़बड़ पैदा कर सकता है। अंधकार में आत्मपरीक्षण को स्थान है और इसलिए वह आत्म-साधना के लिए विशेष अनुकूल है।
अंधकार को भावात्मक कहो, चाहे अभावात्मक, अंधकार मनुष्य के मन के लिए, हृदय के लिए और आत्मा के लिए पोषक वस्तु है। बहुत से बंधन काटकर छुटकारा देनेवाली वस्तु हितकर है। सारी रात कमरे में प्रकाश रखने की सुविधा होने पर भी सोनेवाला व्यक्ति अंधकार का ओढ़ना पसन्द करता है । दिन में सोने वाला व्यक्ति भी प्रकाश कम करके सोता है । नींद जिस तरह थके हुए आदमी को आराम देकर ताजा करती है उसी प्रकार अंधकार भी थकान दूर कर के ताजगी उत्पन्न करता है। और इसीलिए मनुष्य अंधकार में जाकर बैठता है तो उसे नई-नई कल्पनाएं सूझती हैं भरमाये हुए मनुष्य को संकट से मुक्त होने का मार्ग सूझता है और निराश मनुष्य को आशा की खुराक मिलती है। मेरा तो साफ अभिप्राय है कि जगत् में अगर अंधेरा नहीं होता तो आज जितनी होती हैं उनसे ज्यादा आत्महत्याएं होतीं । अंधेरे के शान्त वातावरण में उत्तेजित मन स्थिर होता है, दूसरी तरफ का विचार करने लगता है, अन्तर्मुख होकर आत्मप्रवण हो सकता है और इहलोक के साथ-साथ परलोक का विचार होने के कारण मनुष्य में दिव्य-दृष्टि का उदय हो सकता है । अंधकार के पा यथेच्छ जगह होने के कारण भीड़ उत्पन्न किये बिना वह मनुष्यों को एक-दूसरे के समीप लाता है।
मृत्यु का रहस्य
जिस तरह दिवस और रात्रि मिलकर २४ घण्टे का दिन बनता है; शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष मिलकर महीना बनता है, उसी तरह जीवन और मरण मिलकर जिन्दगी यानी व्यापक जीवन बनता है'। दिवस- रात की या उभयपक्ष की उपमा कइयों को नहीं जंचेगी। वे कहेंगे कि अहोरात १२-१२ घण्टे के समान होते हैं। शुक्ल कृष्णपक्ष १५-१५ दिन के होते हैं। जीवन-मरण का वैसा नहीं है। जीवन दीर्घकाल पर फैला हुआ, तना हुआ होता है। मृत्यु एक क्षण की चीज है । आखिरी सांस ले ली और जीना समाप्त हुआ । मृत्यु क्षणिक है । उसकी तुलना जीवन से कैसे हो सकती है ?
लोग कहते हैं, शुक्लपक्ष में प्रकाश होता है, कृष्णपक्ष में अंधेरा क्या बात सही है ? लोग कहते हैं, दिन सफेद होता है, रात काली। क्या यह बात भी शुद्ध सत्य है ?
जिसे हम बारह घण्टे की रात कहते हैं, उसके प्रारम्भ में और अन्त में संध्या- प्रकाश होता ही है ।
पूर्णिमा की रात्रि सारी प्रकाशित होती है । अमावस्या की रात्रि को चन्द्रिका का अभाव रहता है । लेकिन बाकी के दिनों प्रकाश और अंधकार दोनों को कमोबेश स्थान है। हम इतना कह सकते हैं कि शुक्लपक्ष में शाम को चन्द्र प्रकाश पाया जाता है, कृष्णपक्ष में शाम को चन्द्र का दर्शन नहीं होता। बाकी दोनों पक्षों में प्रकाश और अंधेरा दोनों होते हैं।
हमारी जिन्दगी में भी मृत्यु के बाद हमारे उसी जीवन का उत्तरार्द्ध शुरू होता है, जो पूर्वाद्धं की अपेक्षा व्यापक और दीर्घकालिक होता है ।
मनुष्य के मरण के बाद वह अपने समाज में जीवित रहता है। किसीका समाज छोटा होता है, किसी का बड़ा । मनुष्य अपने जीवन में जो कर्म करता है, विचार प्रकट करता है, ध्यान-चिन्तन करता है, उसका असर उसके समाज पर होता ही रहता है। चन्द बातों में मृत्यु के बाद यह असर ज्यादा होता है। मनुष्य ने
विचार चुनी हुई रचनाएं / २४३