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________________ "या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥" अध्यात्म के क्षेत्र में भगवान् शिव परमज्ञानी योगेश्वर हैं। पुराणकार कहते हैं कि व्यवहार के बारे में उनका सुस्त दिमाग चलता ही नहीं। मनुष्य का ज्ञानसप्तक और महादेव का ज्ञानसप्तक भिन्न होने चाहिए। (मनुष्य अपने गले से ज्यादा-से-ज्यादा 'सा रे ग म प ध नी सा' के तीन ही सप्तक निकाल सकता है। वह मन्द्र से नीचे नहीं जा सकता और तार सप्तक से ऊपर नहीं जा सकता। यह हुई गले की बात। कानों के बारे में भी इसी प्रकार दोनों सिरे की मर्यादा है।) ___ अब हम अंधकार की तरफ फिर से आवें। मैंने एक बार कुछ अंश मजाक में और कुछ अंश तात्विक वृत्ति से लिखा था-जिस स्थिति में कम दीखता है, उस स्थिति को अगर अंधकार कहें और अधिक दीखता है, उस स्थिति को प्रकाश कहें तो दिन में उजला धुप्प अंधेरा होता है, इसलिए हमें सिर्फ पृथ्वी और सूर्य ये दो ही खगोल दिखाई देते हैं। रात को कृष्ण प्रकाश फैलता है इसलिए हमें आकाश में लाखों खगोल दिखाई देते हैं। उन्हें हम तारे, नक्षत्र और तारकापुंज कहते हैं। दूरबीन की सहायता से हम इस कृष्ण प्रकाश को बहुगुना करते हैं, इसलिए हमें सुक्ष्मातिसूक्ष्म आकाश स्थित तारे दीख सकते हैं । दिन का धवल अंधकार इष्ट समझें या रात के विश्वव्यापी कृष्ण प्रकाश को परम सखा समझें? विचार करके ही इसे निश्चित करना चाहिए। _ शांतिनिकेतन में महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर रात की प्रार्थना के समय दीया हटा देते थे। रवीन्द्रनाथ ने यही परम्परा आगे चलाई। शांतिनिकेतन की यह पद्धति गांधीजी को इतनी पसन्द आई कि उन्होंने भी रात की और सुबह की प्रार्थना के समय दीया हटा देने की परिपाटी चलाई। कितने ही योगी, शाम को प्रकाश क्षीण होकर जब अंधकार शुरू होता है, उसी समय ध्यान में बैठना पसन्द करते हैं, क्योंकि अंधकार एकाग्रता के लिए, अन्तर्मुख वृत्ति के लिए विशेष पोषक होता है। रात को आकाश में असंख्य तारे चमकते हैं। जब चांदनी होती है तब सिर्फ बड़े तारे ही दिखाई देते हैं और चन्द्रमा का प्रकाश सौम्य रूप से आकाश और पृथ्वी को काव्य की शोभा देता है कि अन्तर्मुख होकर ध्यान करने के लिए बाहर की परिस्थिति जरा भी बाधक नहीं होती। आजकल की बिजली जहां-तहां अंधकार का संहार करती है और मन में उपशम पैदा होता हो तो उसे भगाकर उसके स्थान पर उत्तेजना उत्पन्न करती है । इस प्रकाश से अगर केवल रात का दिन हो जाता तो शिकायत इतनी नहीं थी। लेकिन यह उत्तेजना दिन में होने वाले काम भी नहीं करने देती और रात का विश्राम अथवा विश्राब्ध वार्तालाप भी नहीं होने देती। इसका प्रकाश यानी केवल उत्तेजना और कृत्रिमता। इसके कारण न करने के काम करने के लिए मनुष्य तत्पर होता है। किसी भी प्रकार का शुद्ध निर्णय करना।ऐसे वक्त करीबकरीब अशक्य होता है। और जो अंतर्राष्ट्रीय बनाव-बिगाड़ आज संसार-भर में चल रहा है, उसमें योगियों की साम्यबुद्धि होती ही है, ऐसा कौन कह सकता है ? संसार-भर में तरह-तरह की उत्तेजना की धमाचौकड़ी चल रही है और ऐसे वातावरण में ही सारा बनाव-बिगाड़ होता है। तब ऐसा नहीं कह सकते कि यह सारा कृत्रिम प्रकाश मनुष्यजाति के कल्याण के लिए पोषक ही है। भगवान हमें ऐसे कृत्रिम प्रकाश में से शांतिदायक अंधकार की तरफ ले जाओ, ऐसी प्रार्थना करने के दिन सचमुच ही आ गए हैं। प्राकृतिक प्रकाश में मनुष्यता होती है। प्राकृतिक अंधेरे में आत्मीयता होती है और चिन्तन को अवकाश भी मिलता है। कुदरती प्रकाश और कुदरती अंधकार, दोनों ईश्वर के दिये हुए प्रसाद हैं। दोनों में मनुष्य का व्यक्तित्व निखरता है और विकास पाता है। प्रकाश प्रवृतिपरायण होने के कारण २४२ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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