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________________ जिस तरह थून और इण्टरलॉकन के बीच थूनरसो सरोवर लंबित हुआ है, उसी तरह इण्टरलॉकन और ब्रियेएज के बीच दूसरा एक सरोवर बना हुआ है। उसका नाम है 'ब्रियेएन्जसी' 'सी' के माने हैं सरोवर। इन्टरलॉकन का गौरव ही इसमें है कि उसके दोनों बगल में गंधर्व-प्रदेश है। बम्बई, मद्रास, नई दिल्ली वगैरा शहरों की आधुनिक व्यवस्था को देखने के बाद भी कहना पड़ता है कि स्विट्जरलैंड के शहरों की स्वच्छता और घरों को सुचारु ढंग से व्यवस्थित बनाने की अभिरुचि हमारे लिए अनुकरणीय है। इण्टरलॉकन के आसपास की सृष्टि-शोभा अघाकर देखने के बाद हमने उत्तर की ओर का रास्ता लिया । क्या दक्षिण, क्या उत्तर, हमारा रास्ता तो सरोवर के साथ खेलता-खेलता चलता था। कभी लगता, मानो आचमन करने के लिए सरोवर की सपाटी तक वह नीचे उतरा है। कभी ऊंचाई से, सरोवर की शोभा दूर तक निहारने के लिए ऊपर चढ़ जाता था। एक जगह पर बतखों का एक काफिला पानी में आगे बढ़ रहा था, मानो कोई बड़े महत्व के काम के लिए निकल पड़ा हो । दूसरी जगह पर दस-बीस नावें अपने पाल सकेलकर और लंगर पानी में उतारकर कुंभकर्ण की तरह डोलती थीं और आसपास के रंग-बिरंगे फूल 'क्या मजा', 'क्या मजा' कहलाकर सबकी प्रसन्नता बढ़ाते थे। यद्यपि हमारा रास्ता सरोवर के किनारे-किनारे से जाता था, फिर भी पहाड़ की कई उंगलियां सरोवर के पानी के साथ खेलने के लिए आगे आई होने से उसमें सूराख करके ही हमारा रास्ता आगे बढ़ सकता था। यह छोटे-छोटे 'टनल' सारे काव्य की गंभीरता और गहराई बढ़ाते थे। इतने में रास्ते में एक छोटा-सा प्रपात उतावला-उतावला कूदता-कूदता सरोवर में स्वात्मार्पण करता दिखाई दिया। हमारा रास्ता उसपर पुल की मर्यादा बांधकर आगे बढ़ा। सूरज दिखाई नहीं देता था, लेकिन बादलों ने एक खिड़की खोलकर थोड़ी सूर्यकिरणे सरोवर पर बरसाईं, और सरोवर तुरन्त ही चमक उठा। सरोवर का रंग, उसपर की झुर्रियों का डिजाइन और उसकी विविध प्रकार की क्रांति-सब मिलकर हर क्षण हमको नया-नया आनन्द देते थे। एक बड़ी नाव पर पत्थर ले जाने का बोझा आ पड़ा था। यह नाव सरोवर की इजाजत लेकर आगे बढ़ रही थी और उसकी नाक के सामने सरोवर का पानी कोहरा उड़ाकर उसका स्वागत कर रहा था। रास्ते की तरफ की दीवारें सुन्दर बेलों से ढकी हुई थीं। भड़कीले रंग के कपड़े पहने हुए सुन्दर बालक फूलों के साथ होड़ लगा रहे थे। जहां जगह मिली, वहां लोगों के सरोवर के किनारे पर फूल-झाड़ों के बीच आराम करने के लिए कुर्सियां रखी हैं। कुदरत की भव्यता दिन-रात नजर के सामने होने से कई लोगों की नजरें जड़ हो जाती हैं, सड़ जाती हैं। उन्हें उसमें कोई मजा नहीं आता, यहां के लोग ऐसे दुर्दैवी नहीं हैं। वे मानो कुदरत के सौन्दर्य पर ही जीते हों और बढ़ते हों, ऐसा लगता है। विचार : चुनी हुई रचनाएं | २२७
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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