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अध्ययन करेंगे सब धर्मों का इसमें उनके धर्म-संस्थापक और प्रचारकों के जीवन का अध्ययन, धर्मग्रन्थों का गहरा परिचय, धर्म का और धार्मिक संस्थाओं का इतिहास इत्यादि सब विषय आयेंगे ही। लेकिन धर्म-सुधार का काम (जो अत्यंत आवश्यक है) उस धर्म के लोगों को ही करना पड़ेगा । बाहर के लोग धर्म वालों से परिचय प्राप्त करेंगे, जो बात जंचती नहीं। उसके बारे में प्रश्न पूछेंगे, अपने धर्म की दृष्टि समझायेंगे, लेकिन हरेक धर्म के सुधार का काम उस धर्म के अवलंबियों पर ही छोड़ देंगे। ऐसा नहीं किया तो धर्म-समन्वय जगह धर्म-संघर्ष ही होगा। हरएक धर्म में धर्म - समन्वय के लिए जो अनुकूल बातें होंगी उनपर भार देना और उनका प्रचार करना यही होगा हमारा प्रधान कार्य
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इसी तरह से जब अनेक धर्म एक-दूसरे के नजदीक आयेंगे तब भेदों को सहन करना हम सीखेंगे। कई भेद ऐसे होते हैं जो मानवी संस्कृति को समृद्ध ही करते हैं। जहां प्रेम/दर का संबंध है, आत्मीयता का संबंध है। वहां भेदों के कारण विरोध या तिरस्कार खड़ा नहीं होता, खूबियों की ओर ही सब ध्यान केन्द्रित होता है ।
इसमें शक नहीं कि जिन पुराने रिवाजों में समस्त मानव जाति को आघात पहुंचे ऐसे बुरे तत्त्व रह ये हैं । उनका विरोध तो सब मिलकर ही करेंगे। लेकिन यह सारा काम समन्वयवृत्ति के लिए पोषक बने, इसका आग्रह रहेगा ही ।
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सबसे बड़ी आवश्यकता है - सार्वभौम समन्वय तत्त्व को उसके शुद्ध रूप में समझने की और समझाने की संस्कृति के पहलुओं के अध्ययन के द्वारा परिपक्वता लाये बिना हमारे मिशनरी समन्वय का काम अच्छी तरह से कर नहीं सकेंगे। उनको तैयार करने में जितने भी प्रयत्न जरूरी हों, पूरी निष्ठा से किये जायेंगे। प्रारम्भ अगर शुद्ध रूप में हुआ तो उसका विकास और प्रचार कालबल से होगा हमारा काम बुनियाद को शुद्ध और मजबूत करने का ही रहेगा
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धर्मसमन्वय का काम केवल दार्शनिक नहीं है। वह सामाजिक और सांस्कृतिक भी है। धर्मों की सच्ची शक्ति उनकी दार्शनिक बुनियाद पर ही अवलंबित होती है। इसलिए उसका गहरा अध्ययन होना ही चाहिए । किंतु जहां मिशनरी कार्य करना है, वहां भावनाओं, रस्म-रिवाजों और परम्परा का महत्त्व स्वीकारना ही पड़ता है । इसीलिए हमारे काम में दार्शनिक की एक बाजू रहेगी, तो दूसरी बाजू समाजविज्ञान की भी रहेगी । इसलिए हमारा एक प्रयत्न यह रहेगा कि हरएक धर्म के त्योहारों में दूसरे धर्म के लोगों को शरीक होने के लिए आदरयुक्त आमन्त्रण दिया जाय और उनके लिए वायुमण्डल भी अनुकूल किया जाय। त्योहारों में, उत्सवों में और सामाजिक आमोद-प्रमोद में घुलमिल जाने के बाद संकट के समय एक-दूसरे की सेवा करने की बात आ ही जाती है। भिन्न-भिन्न समाज के युवक-युवतियों को छात्रवृत्तियां देकर समन्वय कार्य के लिए तैयार करना, वह भी एक प्रधान कार्य रहेगा।
विश्व समन्वय संघ का काम केवल अध्ययन और संशोधन का नहीं, किंतु देश में और बाहर भी धर्मप्रेमी जनता में प्रचार करने का है । यह काम विशाय, व्यापक प्रचारक के द्वारा होगा । एक संस्था द्वारा नहीं, किंतु संघ की अनेक शाखाओं के द्वारा, दूसरी स्वतन्त्र संस्थाओं के द्वारा और निष्ठावान असंख्य छोटेबड़े व्यक्तियों के द्वारा यह आंदोलन चलेगा।
मैं मानता हूं कि मेरा काम भगवान की इच्छा के अनुसार प्रारम्भ करने का ही है । बाद में इसका रहस्य और महत्त्व समझकर इसे फैलाने का कार्य असंख्य लोग करेंगे। कुदरत से निवृत्ति मिलने के पहले देश के अनेकानेक नवयुवकों और युवतियों से मेरी हार्दिक प्रार्थना है कि इस काम को वे उठायें और इसी को अपना जीवनकार्य समझकर इसे सर्वत्र फैलावें । विभिन्न समाजों के पास जाकर उन्हें समझाया जाय कि युगधर्म कहता है कि भेदों को गौण समझकर सब लोग परस्पर प्रेम द्वारा विश्व सहयोग स्थापित करें |
२०४ / समन्वय के साधक