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भारतीय जनता के समक्ष 'सूर्योदय का देश' नामक पुस्तक की रचना करके प्रकाशित करवाई। उन्हें छह बार जापान में निमन्त्रित किया
गया ।
इन्हीं दिनों में काकासाहेब मे एक जापानी युवक तथा एक लड़की को भारत में बुलाकर हिन्दी भाषा का अध्ययन कराया और नरेशभाई नामक युवक को, जो उनके प्रिय अंतेवासी हैं, जापान भेज कर जापानी भाषा तथा बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण करायी ।
काकासाहेब के निवास स्थान 'सन्निधि' के एक कक्ष में एक 'कोनशी सानगाई' का महा मण्डाला प्रतिष्ठित है, जिसका वन्दन-अर्चन होता है । जापानी बौद्ध धर्म काकासाहेब के हृदय में उतर गया । अभी १ अक्तूबर १९७६ को जब मैं काकासाहेब से मिलने गया था तब काकासाहेब ने कहा, “जापान मेरा अपना देश है। अब जापानी लोगों के साथ बारम्बार मिलना-जुलना तो असम्भव हो गया है, लेकिन वहां के सब लोग मेरे हृदय में हैं। मैं जापानी लोगों से कभी पृथक नहीं रहता ।”
बौद्ध धर्म के संस्कारानुसार मैंने भी अपने जीवन-काल के प्रारंभिक लगभग पचास वर्ष भारत में व्यतीत किये और भारत के लिए पूजा - प्रार्थना की । सम्भवतः काकासाहेब अगले जन्म में जापान में पैदा होंगे और हो सकता है कि अगले जन्म में मेरा जन्म भारत में हो । चाहे हम दोनों का जन्म किसी भी देश में हो, हम एक साथ होकर विश्व शान्ति की स्थापना करने के लिए सतत् प्रयत्न करने की प्रतिज्ञा
लेंगे ।
नाम्यो हो रेंगे क्यो ।
टोकियो, ( जापान )
— नीची दात्सू फूजीई
मंगल वचन | १३