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बीमारी से बचकर मैं आश्रम में जब काम करने लगा तब बापूजी ने कहा, "विद्यापीठ का मामला उलझन में पड़ा है । विद्यापीठ का भार संभालकर तुम्हें ही सब सुलझाना होगा । विद्यापीठ है तो आखिर तुम्हारी ही कृति । "
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मैंने बापूजी से कहा, “विद्यापीठ में कितना बिगाड़ हुआ है, वह आप जानते हैं। उससे भी अधिक मुझे मालूम है । फिर भी, केवल आपको निश्चित करने के लिए मैं विद्यापीठ का बोझ संभालने को तैयार हूं । कृपलानी मेरे अंतरंग मित्र हैं। हमारे बीच गलतफहमी होने की संभावना ही नहीं है । किसको कौन-सा स्थान लेना, वह हम आपस में देख लेंगे ।
इसके जवाब में बापूजी ने जो कहा उसके लिए मैं तैयार न था । उन्होंने कहा, "कृपालानी को मैं विद्यापीठ से बाहर खींचना चाहता हूं। उत्तर भारत में वे खादी का काम बहुत अच्छा चला रहे हैं । उस काम के लिए कृपालानी ही उत्तम हैं ।"
मैंने कहा, "कृपालानी और मैं कालेज के दिनों से घनिष्ठ मित्र हैं। मेरे ही द्वारा महाराष्ट्र की क्रान्तिप्रवृत्ति के साथ उनका कुछ-कुछ संबंध हुआ था। मैं विद्यापीठ में जाऊं और कृपालानी को छोड़ना पड़े तो हमारे बीच भारी गलतफहमी पैदा होगी ।"
बापूजी ने कहा, "यह मुझपर छोड़ दो। ऐसा कुछ न हो पाये, यह देखना मेरा काम है। आम जनता की सेवा के लिए ही तो हम हैं । जो काम आ पड़े सो करना है ।"
बापूजी का रुख मुझे अच्छा तो नहीं लगा, किन्तु मैं रहा आज्ञाधारी सेवक । बापूजी ने स्पष्ट कहा कि कृपालानी और मेरे बीच गलतफहमी वे होने नहीं देंगे। मेरी बड़ी उलझन तो वही थी। बापूजी का आश्वासन स्वीकारना अनिवार्य था। लेकिन अफसोस है कि मेरी ही बात सही साबित हुई । कृपालानी गुजरात छोड़ना नहीं चाहते थे । बापूजी ने उनको बुलाकर पूछा, "मैंने तो आपको मेरठ की ओर आपके खादी काम
भेजने का सोचा है । क्या फिर भी आपको गुजरात में रहने का ही आग्रह है ? " ऐसे प्रश्न का उत्तर कोई क्या दे ? (बापूजी ने ही मुझे बाद में बताया था कि किन शब्दों में उन्होंने कृपालानी से सवाल पूछा था । इसीलिए मैंने उनके शब्द यहां उद्धत किये हैं । )
कृपालानी ने मुझसे कहा, "बापूजी का यह रुख तुम जानते थे तो पहले ही मुझे चेतावनी देने का तुम्हारा धर्म था । इस मित्र-धर्म का तुमने पालन नहीं किया, यह सचमुच आश्चर्य की बात है । "
मैंने कहा, "बापूजी जब मेरे साथ खानगी में बात करते हैं तब मैं कैसे वह बात किसीको भी कह सकता हूं ? बापूजी ने मुझे विश्वास दिलाया था कि कृपालानी को मैं संभाल लूंगा । इसलिए मैं निश्चित था । " कृपलानी के दिल को चोट पहुंची थी। हमारा हार्दिक संबंध उन्होंने समेट-सा लिया। मेरे जीवन का यह एक भारी विषाद है ।
विद्यापीठ की जिम्मेदारी लेने के बाद मैंने बापूजी से कहा, "आप कुलपति हैं, मुझे कुलनायक नियुक्त करते हैं तो मैं आपको वचन देता हूं कि छोटी-से-छोटी बारीकियां मैं आपको बताता रहूंगा। जो भी कदम उठाना हो, उसकी जानकारी आपको पहले से देकर आपकी सलाह के अनुसार ही काम करूंगा । किन्तु विद्यापीठ के काम के संबंध में और किसी को भी आपके पास आकर बात नहीं करनी चाहिए। सब अधिकार मेरा है । आपकी सलाह लेकर मैंने काम किया हो तो भी उसकी जिम्मेदारी मैं आपके सिर पर नहीं डालूंगा, क्योंकि विरोधी दलील सुनने का मौका मैं आपको नहीं दे रहा हूं। आपकी सलाह मैं लूंगा, केवल मेरे अंतरात्मा के संतोष के खातिर, किन्तु यदि दोष देखना हो तो जनता मेरा ही दोष देख सकेगी। आपका आधार नहीं लेना है ।" बापूजी ने मेरी बात मान ली ।
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा / १८७