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दीं। साथ एक बात स्पष्ट हुई कि सारे देश के लिए जब गुजरात विद्यापीठ एकमात्र संस्था है तब उसका स्वरूप अखिल भारतीय होना चाहिए। इसलिए शिक्षा का वाहन गांधी जी के सिद्धान्तों के अनुसार हिन्दी ही हो सकता है। गुजरात विद्यापीठ अखिल भारतीय संस्था हो और उसकी सारी शिक्षा हिन्दी द्वारा दी जाए, इस नीति का सभी असहयोगी नेताओं ने उत्साहपूर्वक पुरस्कार किया ।
किन्तु गांधीजी के आश्रम के प्रतिनिधियों में गांधी सिद्धान्त समझनेवाला और राष्ट्रीय शिक्षण भी पूरा समझने वाला मैं ही था । मैंने आग्रह किया कि सारे देश में भाषावार प्रान्त होंगे और उस उस प्रदेश में उस उस भाषा द्वारा शिक्षा दी जाएगी। गुजरात विद्यापीठ के शिक्षा विषयक आदर्श अखिल भारतीय हैं, किन्तु गुजरात विद्यापीठ विशाल गुजरात की ही सेवा करेगी। उसमें अंग्रेजी का बहिष्कार नहीं हो सकता । वह एक उपयोगी और सर्वत्र फैली हुई समर्थ भाषा है, इसलिए एक कोने में उसको स्थान तो होगा ।
सारे देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी ही हो सकती है, इसलिए सारे गुजरात विद्यापीठ के तन्त्र में नीचे से ऊपर तक द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी के लिए अत्यन्त आदर का स्थान रहेगा। किन्तु गुजरात विद्यापीठ की शिक्षा का वाहन तो नीचे से लेकर शिखर तक गुजराती ही रहेगा। इस नीति में मैं अडिग रहा। मेरे विरुद्ध प्रचण्ड बहुमत होते हुए मैंने एक न सुनी। लोग अकुलाए, लेकिन करते क्या ? प्रस्ताव राजकीय परिषद् के हों या किसी भी संस्था के हों, अमल में लानेवाले तो हम ही थे । हमारे खिलाफ शिकायत नहीं चल सकी। लोग गांधीजी के पास गये। उन्होंने कह दिया, "काका का आग्रह उचित है।" तब सारा वातावरण मेरे लिए अनुकूल हुआ ।
किन्तु कॉलेज में अंग्रेजी सिखाएगा कौन? उस कॉलेज का आचार्य कौन बनेगा ?
मैं सीधा बापूजी के पास गया। मैंने कहा, बात यहां तक आई है । अब बलूभाई और दीवान को राजी किए बिना चारा नहीं मुझे एक आचार्य (प्रिंसिपल) चाहिए। आप ला देंगे तभी बात बनेगी।
थोड़े ही दिनों में बापूजी ने कहा कि दिल्ली के रामजस कॉलेज के एक प्रोफेसर या आचार्य वहां से मुक्त होनेवाले हैं। वे सिंधी है—असूदमल गिदवानी उनके साथ मेरी बात हो चुकी है, वे तुरन्त आयेंगे। । मुझे लगा, ठीक है अब विद्यालय चलेगा । असूदमल गिदवानी अंग्रेजी में अच्छे व्याख्यान दे सकते थे । लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव पड़ा, खासकर वल्लभभाई और अम्बालाल साराभाई नये आचार्य से प्रभावित हुए। आरम्भ में गिदवानी हरेक काम मुझसे पूछकर करने लगे। सभा के अन्त में वक्ता और अध्यक्ष को धन्यवाद देने का काम अचूक मुझे सौंपते हमारा सहयोग अच्छा चला, किन्तु आगे चलकर जब अम्बालाल साराभाई और वल्लभभाई जैसे दो बड़े आदमियों का उनको सहारा मिला तब मेरा महत्त्व कम हो गया। मेरा सारा उत्साह महाविद्यालय के भाषा विभाग में आर्य विद्या मंदिर में केन्द्रित होता चला। रामनारायण पाठक, रसिकलाल परीख इत्यादि लोगों की सिफारिश से मैं पंडित सुखलालजी पंडित जिनविजयजी, पं० बेचरवास जैसे जैन पंडितों को विद्यापीठ में ले आया था । लेकिन इस बात का पूरा महत्त्व राजकीय नेता समझ नहीं पाए ।
मेरे ही आग्रह से बापूजी जिनको लाये थे, उन गिदवानीजी के साथ रोज की खींचातानी के बदले विद्यापीठ में से मैं निकल ही जाऊं, यह ठीक होगा, ऐसा सोचकर मैंने अपना निर्णय बापूजी को कहा । "मेरा मुख्य काम तो आश्रम में ही है। गुजराज की जनता ने मेरी सेवा मांगी, इसलिए गुजरात विद्यापीठ की स्थापना मैं पड़ा। अब वह काम मेरे बिना अच्छी तरह चल सकेगा इसलिए विद्यापीठ छोड़कर आश्रमशाला चलाने की इजाजत मुझे दीजिए।" बापूजी मान गए।
गिदवानी ने अपने ढंग से विद्यापीठ का काम अच्छा चलाया ।
बढ़ते कदम जीवन-यात्रा / १०५