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जब बापूजी स्वयं 'नवजीवन' चलाते थे, तब लेखों की कमी पड़ने पर मैं ही लिख देता था। जब बापूजी जेल गये तब सारा 'नवजीवन' अंक भरने का तथा अग्र-लेख लिखने का भार भी मेरे सिर पर आ गया। स्वामी की मदद से उसकी जिम्मेदारी निभाना मेरे लिए मुश्किल न था। सच तो यह है कि सारी जिम्मेदारी निभाने की शक्ति स्वामी के पास थी ही और मेरी मदद का उनको पूरा भरोसा था।
सरकार ने देखा कि गांधीजी को जेल भेजने पर भी उनके अखबार अच्छी तरह से चलते हैं, तब उन्होंने लेखक, सम्पादक, प्रकाशक और प्रेस-मैनेजर सभी को जेल भेज दिया। फिर भी अखबार तो चलता ही रहा। बाद में मेरे एक-दो लेखों के लिए सरकार ने मेरे ऊपर मुकदमा चलाया। अदालत में मैंने बयान देते कहा, "गांधीजी की गैर-हाजिरी में 'नवजीवन' चलाने की जिम्मेदारी ही मेरे सिर पर थी। मेरे लेखों में राजद्रोह है, यह सिद्ध करने की तकलीफ सरकारी वकील को उठाने की जरूरत नहीं है। आज की सरकार के खिलाफ असंतोष फैलाना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। मात्र यह काम हम अहिंसक ढंग से करेंगे । गुनाह मैं कबूल करता है और सजा पाने को तैयार हूं।" मेरे बाद सरकारी वकील खड़े हुए। उन्होंने कौन से मुद्दे रक्खे, उसके साथ कुछ लेना-देना नहीं है। आखिर में उन्होंने कहा, "श्री कालेलकर अपनी सारी जिम्मेदारी कबूल करते
'नवजीवन' का भाग्य ही अच्छा था। जब मैं जेल गया, उसी समय महादेवभाई जेल से छूटकर घर गये थे, इसलिए 'नवजीवन' की परम्परा मैं एक अंक की भी मुश्किल नहीं आयी। एक साल की सजा दस महीने में पूरी करके मैं छूट कर आया । उसी समय छः साल की सजा भोगते गांधीजी को बीमारी के कारण सरकार ने रिहा कर दिया। मैं तुरन्त पूना गया और कैदी गांधीजी से अस्पताल में मिल आया।
२०:: कांग्रेस की सेवा
'नवजीवन' द्वारा गुजरात के सार्वजनिक जीवन की और साथ-साथ गुजराती साहित्य की जो सेवा हुई, उसकी कदर करने का मन राजकीय नेताओं को हुआ । थोड़े ही दिनों में बोरसद में होने वाली गुजरात की राजनैतिक परिषद के अध्यक्ष के लिए मेरा नाम सुझाया गया। गुजरात के राजकीय सार्वजनिक जीवन की दांव-पेच के बारे में कुछ जानता था, इसलिए मैंने महादेवभाई द्वारा पूज्य बापूजी का निर्णय मांगा। मैंने कहा कि राजकीय परिषद् का अध्यक्ष-पद स्वीकारने की मेरी योग्यता में मुझे शंका है, इसलिए बापूजी जैसा कहेंगे वैसा करूंगा।
___ अध्यक्ष-पद स्वीकारने की बापूजी ने सलाह दी। वैसा जब जाहिर हुआ तब उससे महाराष्ट्र और कर्नाटक के लोग बहुत खुश हुए। उन दिनों देश में एक जबर्दस्त मतभेद चल रहा था।
सरकार के कानून तोड़कर सत्याग्रह करने की गांधीजी की नीति नहीं चलानी चाहिए, ऐसा कहनेवाला एक जबर्दस्त पक्ष था। उस पक्ष के नेता थे सरदार वल्लभभाई पटेल के बड़े भाई श्री विठ्ठलभाई पटेल । उन्होंने गांधीजी की 'कानून भंग' करने की नीति का फिर से विचार करने के लिए एक समिति नियुक्त की। लोग उसे 'कानून भंग समिति' कहने लगे। वल्लभभाई थे बापूजी के पक्ष में। उनके ही भाई विरोधी पक्ष के नेता ! मेरे अध्यक्षीय व्याख्यान में मुझे उस समिति का कुछ मजाक करना था ! इसलिए मैंने उसे 'उत्साह
बढ़ते कदम :जीवन-यात्रा | १७३