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________________ लिए याद हैं, क्योंकि सारे जीवन म इन दो बहनों ने उसके बाद एक भी लेख लिखा हो, ऐसा मैं नहीं जानता। बापूजी तो मंगलाचरण के तौर पर बहनों के लेख खास लेना चाहते थे। अब स्वामी के साथ मेरा इतना निकट का सम्बन्ध था कि हममें से कोई एक जो प्रवृति शुरू करे, तो वह दोनों की हो जाती ! बापूजी के पास से लेख आते, अंग्रेजी के अनुवाद भी आते । तब भी यदि 'नवजीवन' के लिए मसाला कम होता, तब स्वामी मेरे पास से लेख मांगते । बापूजी का जीवन-तत्वज्ञान, उनकी नीति इत्यादि मैं सब विस्तार से जानता था। मराठी में अखबार चलाने का मुझे अच्छा अनुभव भी था, इसलिए लेख देने के बारे में मुझे सिर्फ भाषा की मुश्किल थी। मैं स्वामी को अपनी टूटी-फूटी गुजराती में लिखवाता जाता और वे अच्छे शब्द पसंद करके लेख लिखते जाते । इस तरह 'बहुत से अच्छे असल गुजराती शब्द मेरे लेखों में आने लगे । लेखों के विचार और निरूपण-शैली, मेरी और भाषा की करामत स्वामी की। गांधीजी भारत आये, उससे पहले सूरत कांग्रेस के बाद लोकमान्य तिलक ने बम्बई में एक मराठी दैनिक 'राष्ट्रमत' शुरू किया था। इसमें श्री गंगाधरराव देशपाण्डे ने मुझे खींचा। और भी कई लेखक नागपुर यवतमाल की तरफ से आए हुए थे। बाद में विचार हुआ कि लोकमान्य की नीति गुजरात के सामने भी पेश करनी चाहिए। गुजराती 'राष्ट्रमत' शुरू करने का तय हुआ। उसके लिए मराठी में से गुजराती में अनुवाद करनेवाला एक जवान लड़का उन्हें मिला जो गुजराती होते हुए वराड़ के तरफ की मराठी में व्याख्यान देता था। उनको मराठी से गुजराती करने के लिए बुलाया। वे थे अपने स्वामी आनन्द । 'राष्ट्रमत' में उनके साथ मेरी उत्तम मित्रता हुई थी। मैं गुजराती में लिखने लगा, उसका सारा श्रेय स्वामी आनन्द को है। फिर तो मेरा गुजराती लिखतेलिखते सुधारने का काम और लोग भी करने लगे और मैं स्वयं भी तैयार हुआ। स्वामी आनन्द के बाद जुगतराम दवे मेरे लेख लिख लेते थे। फिर नरहरि भाई, किशोरलाल भाई भी कभी-कभी मदद करते। बाद में आए मेरे विद्यार्थी चन्द्रशंकर शुक्ल । वे तो मेरे सचिव ही बन गए। महादेवभाई ने भी कई बार मुझे मदद दी। एक बात आगे की है, फिर भी यहीं देता है। १६३० के आसपास जब बापूजी यरवदा जेल में बन्दी थे और जेल नियमों के अनुसार उनको एक साथी देने की जरूरत सरकार ने महसूस की,। तब जेलों के इन्सपैक्टर जनरल कर्नल डॉयल ने मुझे पसन्द किया। साबरमती जेल से मुझे यरवदा भेजा तब की बात है। जाते ही मेरा स्वागत करके बापूजी ने मुझसे कहा, "तुम्हारी मुश्किल मैं जानता हूं। तुमको हाथ से लिखने की आदत नहीं है, यहां स्वामी आनन्द या चन्द्रशंकर शुक्ल कहां से मिलेंगे? मैंने दिन-भर का मेरा हिसाब करके देखा है, तुम्हारे लिए मैं रोज आधा घंटा निकाल सकूँगा । गुजराती-अंग्रेजी जो कुछ लिखना हो, मुझसे कह सकते हो।" उनके ये शब्द सुनकर मैं तो पानी-पानी हो गया ! मैंने इतना ही कहा, "बापूजी, मैं बुद्धू जरूर हूं, किन्तु इतना बुद्धू नहीं कि लिखने के लिए आपकी मदद मैं मागू?" तुरन्त बापूजी बोले, “नहीं-नहीं, जरा भी संकोच मत करो। बिना किसी मुश्किल के मैं आधा घन्टा दे सकता हूं।" मैंने कहा, "आपके हाथ से लिखवाने जैसा मेरे पास कुछ है ही नहीं।" सच पूछो तो उसी दिन से मुझे अपने हाथ से लिखने की आदत डालनी चाहिए थी, जिससे मेरा परावलम्बन मिट जाता। लेकिन पुरानी आदत कैसे छुटे ? आज भी कोई लिखनेवाला मिले तो ही लिखना और ईश्वर की रचना ऐसी है कि कोई-न-कोई लिखनेवाले मुझे मिलते ही रहे हैं और वह भी अच्छे लिखनेवाले। १७२ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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