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पहले हिन्दुस्तान पर आपका ही राज था। अब यदि प्रजा-राज हो जायगा तो प्रचण्ड हिन्दू-बहुमत का राज होगा। उसमें आपको क्या मिलेगा। उससे बेहतर तो आप 'कांग्रेस का विरोध' कीजिए। हम आपको आपके शिक्षण में खास मदद करेंगे। ऊंची सरकारी नौकरियां देंगे।" मुसलमान ललचाए और उन्होंने कांग्रेस का विरोध शुरू किया।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि उत्तर भारत के हिन्दुओं को पतन काल से विदेशी लोगों की जीहुकुमी का अनुभव था। आज जिस तरह अपने राष्ट्रीय नेता अंग्रेजी भाषा और शिक्षण का महत्व कुछ हद तक स्वीकार करते हुए भी वह शिक्षण 'स्वराज चाहनेवाली राष्ट्रीयता को बाधक है', ऐसा कहते हैं। उसी तरह उत्तर भारत के उस समय के नरम दल के लोग स्वदेशी संस्कृति का अभिमान रखकर हिन्दी को आगे लाना चाहते थे। आज की अपनी राष्ट्रीयता अखिल भारतीय है। उसे केवल अंग्रेजी राज्य का विरोध करना है। उसी तरह से सौ-डेढ़ सौ साल पहले उत्तर भारत की राष्ट्रीयता उर्दू का विरोध करके संस्कृतमयी हिन्दी का पुरस्कार करती थी।
ऐसी हालत में हिन्दीवालों को यह समझाने की आवश्यकता थी कि जबतक पठान-मुगलों का विदेशी राज था, उस समय जो राष्ट्रीयता आपने विकसित की वह आज राष्ट्रीय नही रही है। अब तो हमें हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, पारसी सबको एकत्र करके अंग्रेजों का राज तोड़ना है।
यह दृष्टि सर्वप्रथम गांधीजी ने आरंभ की। उत्तर भारत के हिन्दी लोगों के अन्दर उस समय की पुरानी राष्ट्रीयता के कारण उर्दू का सख्त विरोध था और अधिकतर मुसलमान तो स्वराज्य के ही विरोधी। उन्होंने तो अंग्रेजों के राज्य को और अंग्रेजी शिक्षण को वफादार रहने में ही भारतीय मुसलमानों का कल्याण देखा।
गांधीजी के हिन्दी प्रचार में उत्तर-भारत के हिन्दीभाषी आये तो सही, किन्तु उर्दू का विरोध वे नही छोड़ सके। जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्रीय वृत्ति के लोग अंग्रेजी साहित्य के प्रभाव में आ ही गये थे। अंग्रेजी राज्य से उन्हें द्वेष होते हुए भी पश्चिमी संस्कृति के वे भक्त थे और अंग्रेजी साहित्य के प्रेमी थे। अंग्रेजों का राज्य तो वे तोड़ना चाहते थे, बाद में स्वराज्य के लिए राज्य-भाषा के तौर पर उन्हें विदेशी अंग्रेजी भाषा ही चाहिए थी।
गांधीजी के नेतृत्व के प्रभाव से जवाहरलालजी तो गांधीजी के हिन्दी के पक्ष में आए, लेकित नाममात्र को।
गांधीजी की हिन्दी में मुसलमान आते ही नहीं थे। राष्ट्रीय-वृत्तिवाले और गांधीजी का नेतृत्व करने वाले एक बड़े मुस्लिम नेता के साथ मेरी बातचीत हुई थी। अपनी भूमिका स्पष्ट करने के लिए अपने दिल की बात खुले दिल से समझाने की वृत्ति से उन्होंने मुझसे कहा :
"आप दक्षिण के लोग हमारी बात बराबर समझ नहीं पाते, इसलिए एक बार तो ध्यानपूर्वक सुन लीजिए। उत्तर भारत में हमारा राज था। आज जिस तरह इस देश पर अंग्रेजी का प्रभाव है। उसी तरह उस समय हिन्द-मुसलमान सभी परशियन भाषा सीखते थे । संस्कारिता के लिए दुनिया भर में मशहर यही भाषा थी। हमारी धर्मभाषा अरबी भी एक समर्थ भाषा है। दोनों भापाएं इस देश के लोग (हिन्दू और मुसलमान दोनों) निष्ठापूर्वक सीखने लगे थे, हमारा राज्य फारसी में चलता था।
"यह सब होते हुए भी प्रजा का महत्व पहचानकर अरबी और फारसी छोड़कर जनता की भाषा 'खडी बोली' को हमने राज-भाषा स्वीकार किया। आज जैसे भारत के सब देशी भाषाओं में अंग्रेजी के शब्द घस गए हैं, उसी तरह खड़ीबोली में अरबी-फारसी शब्द प्रचुर मात्रा में घुसे। उस भाषा का नाम हुआ उर्दू । वह थी पूरी-पूरी प्रजा-भाषा। इस देश में रहकर राज्य करना है तो उर्दू जैसी प्रजाभाषा को ही राजभाषा बनाना चाहिए। ऐसा तय करके उर्दू को हमने राजभाषा करार दिया।
१६६ / समन्वय के साधक