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अब आसाम का थोड़ा अनुभव यहां दे रहा हूं।
हिन्दी प्रचार के लिए जब मैं आसाम गया तब मेरे पहले इस प्रदेश में हिन्दी प्रचार का कार्य बाबा राघवदास ने किया था। उनका आदर्श और उनकी पद्धति मुझसे बिलकुल अलग थी। उनके ढंग से आसाम में हिन्दी का प्रचार तो वहां हमेशा के लिए रहनेवाले मारवाड़ियों के बीच ही हो सके, ऐसा था।
उस जमाने में मणिपुर एक देशी राज्य था। राजा नाबालिग था। इस कारण से हो, अथवा और कोई भी कारण हो, मणिपुर में सारी सत्ता अंग्रेजों के एजेन्ट के हाथ में थी। मणिपुर जाने के लिए इजाजत लेने के लिए मैने अनेक बार प्रयत्न किए, लेकिन सफलता नहीं मिली। आखिर मैंने ब्रिटिश एजेन्ट के नाम १५ रुपये का लम्बा-चौड़ा तार किया। गोरे एजेन्ट को लगा होगा कि यह कोई बड़ा नेता या अधिकारी होगा। इजाजत तार से मिली तो सही, किन्तु इतनी देर से मिली कि उस दिन की सब बसें जा चुकी थीं। अन्त में तेल के पीपे ले जानेवाले एक ट्रक में सुबह से शाम तक बैठकर मैं मणिपुर पहुंच सका । यह अनुभव भूल नहीं सकता। मैं मणिपुर पहुंचा। मणिपुर की राजधानी इम्फाल है। वहां किसी की पहचान नहीं थी, फिर कहीं से पहचान निकाली, एक व्याख्यान दिया, अनेक शंकाएं दूर की। दूसरे दिन मैं वापस आया। उसके बाद वर्षों तक मणिपुर जाना नहीं हुआ। दूसरी बार गया तब क्या आश्चर्य ! वहां के स्थानिक लोगों ने हिन्दी के अनेक केन्द्र खोल रक्खे थे। साहित्य की तैयारी चल रही थी। जहां गया, वहां लोग कहने लगे, "बरसों पहले आप आए थे और हिन्दी के पक्ष में आपने एक व्याख्यान दिया था, उसका असर मारवाड़ी और असमिया लोगों पर भी अच्छा हुआ और दोनों के सहयोग से हम कितनी प्रगति कर सके हैं, यह आपको दिखाते हैं। आज हमें आनन्द भी है, और अभिमान भी होता है।"
हिन्दी प्रचार के सिलसिले में जब मैं पहली बार केरल गया तब वहां का एक मजेदार अनुभव भी संक्षेप में सुन लीजिये।
केरल में शाम को पहुंचा। लोगों से मिला । आगे का कार्यक्रम तय किया। सुबह केरल का एक अंग्रेजी दैनिक खोला। उसमें बड़े अक्षरों से मेरा इस तरह का स्वागत था, "एनअदर आर्यन इन्वेजन फ्रॉम दी नॉर्थ।" ऐसे बडे शीर्षक के नीचे ही अंग्रेजी में लिखा था कि काकासाहेब के जैसे बड़े नेता हिन्दी प्रचार के लिए दक्षिण में घमनेवाले हैं। आज केरल आयंगे । मद्रास और तमिलनाडु के समाचार लोगों ने पढ़े ही थे, इसलिए केरल में इस तरह का स्वागत होगा, ऐसी मुझे कल्पना भी नहीं थी।
'उत्तर भारत से दक्षिण पर एक चढ़ाई लेकर आए हैं', ऐसा कहकर मेरा विरोधी स्वागत देखकर मुझे मजा आया। एक साथी ने पूछा, "अब क्या करेंगे।" उनकी आवाज में उलझन भरी हुई थी। मैंने कहा, "इसका मैं पूरा फायदा उठाऊंगा। आखिर मैं शिक्षण-शास्त्री तो हं नहीं।"
मैंने तलाश की कि ये लोग हैं कौन, जिनको हिन्दी की इतनी भड़क है। उन लोगों को एकत्र लाने का मैंने प्रयत्न किया। उनको लगा कि इतना सख्त विरोध किया, फिर भी वह हमसे मिलना चाहते हैं ! ठीक है, उनको कुछ सुनाएंगे, ऐसा सोचकर वे लोग अच्छी संख्या में एकत्र हुए। प्रारम्भ में ही मैंने कहा, "भाइयो, आपने भूल की है, मैं नहीं हूं उत्तर का, न दक्षिण का। मैं तो उत्तर और दक्षिण के बीच मध्य का (जरा पश्चिम की तरफ का) हूं। उत्तर के लोग यदि दक्षिण पर धावा बोलें तो बीच में हम ही उनको रोकेंगे। आप जानते हैं कि हम महाराष्ट्रियों को सब 'दक्षिणी' कहते हैं। हिन्दी राष्ट्र भाषा भले हो, किन्तु मेरी जन्म-भाषा तो 'महाराष्ट्री' है। उत्तर की फौज लेकर मैं धावा क्यों बोलू ! आपका ही नेतृत्व करके क्या मैं उत्तर के विरुद्ध नहीं लड़गा?"
इतना विनोद करने के बाद मैंने कहा, "आपको समझना चाहिए कि आज तक सारे देश पर चन्द खास
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १५६