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________________ ही और आदान-प्रदान बढ़ने से भाषा का मिश्रण भी होता रहेगा यह बात मेरे ध्यान में आई। मैं यह भी देखा कि भाषा का सम्बन्ध धर्म के साथ भी जुड़ जाता है। एक उदाहरण लेंगे। मुसलमान भारत में कहीं भी रहते हों और वहां की भाषा उनकी जन्मभाषा भी हो तो भी वे उर्दू को मुसलमानों की खास भाषा समझकर घर में उसे चलाने की पूरी कोशिश जरूर करेंगे। उसका एक मजेदार अनुभव सुनिये । मैं आसाम में हिन्दी प्रचार करने गया था। वहां के लोगों की भाषा है असमिया । उसकी लिपि करीबकरीब बंगाली ही है । असमिया भाषा तो बंगाली की ही एक बहुत खराब विकृति है । ऐसा कई अच्छे-अच्छे बंगाली मानते हैं । हिन्दी जब संस्कृत शब्द ज्यादा काम में लेती है, तब ज्यादातर हिन्दू उसे समझ जाते हैं । इस अनुभव से आसाम में क्योंकि वहां की भाषा मैं नहीं जानता था, हिन्दी में ही बोलता था। अधिकतर लोग समझ जाते थे । जब कुछ समझ में न आवे तब वहां वे अंग्रेजी में पूछते थे। जवाब में मैं कभी अंग्रेजी में और कभी हिन्दी में सविस्तर समझाता था। एक दिन मेरे व्याख्यान के लिए एक बड़े असमिया मुसलमान को अध्यक्ष बनाया था। मैंने उस भाई से पूछा, "आपकी जन्मभाषा कौन-सी है ?" उसने गम्भीरता से और कुछ जोश से कहा, “ऑफ कोर्स, उर्दू ।" मैंने स्वाभाविक तौर से पूछा, "तब तो आज आप उर्दू में ही बोलेंगे ।" उस भाई का उत्तर सुनकर मैं तो आश्चर्यचकित रह गया । उसने कहा, "हमारी जन्मभाषा तो उर्दू ही है, किन्तु मैं उर्दू बिलकुल बोल नहीं सकता ! मुझे असमिया बोलने की आदत है, इसलिए आज मैं असमिया में ही बोलूंगा ।" अपनी जन्मभाषा में मनुष्य बोल नहीं सकता, यह बात मैंने पहली बार सुनी ! उसके बाद स्नेहियों को वह किस्सा सुनाकर मैं कहने लगा, "अपने देश में दो उर्दू हैं- एक मामूली उर्दू और दूसरी ऑफ कोर्स उर्दू ।" यह ऑफ कोर्स उन असमिया मुसलमान भाई की जन्मभाषा थी ! स्वराज्य के आन्दोलन में बंगाली लोगों ने बड़ा योगदान दिया। बंग-भंग के खिलाफ उन्होंने जबरदस्त आन्दोलन करके बंग-भंग रद्द कराया । उन दिनों बंगाल में अंग्रेजों के राज्य के खिलाफ जबर्दस्त क्रांतिकारी आन्दोलन भी चला। परिणामस्वरूप बंगाली लोगों के बारे मैं और उनकी भाषा के बारे में हमारे मन में बहुत आदर जागा । ऐसे संस्कारी और तेजस्वी लोगों की भाषा और साहित्य जानना ही चाहिए, इस विचार से बंगाली ( और असमिया ) भाषा अच्छी तरह से सीख ली थीं। दक्षिण की कन्नड़ मैं बोल भी सकता था । यह सब देखकर ही गांधीजी ने मुझे भाषा प्रचार में लिया होगा। काफी कम समय में मैंने गुजराती अपनाई और उसमें लिखने भी लगा । यह भी कारण होगा, जिससे बापूजी ने मुझे हिन्दी प्रचार के लिए पसन्द किया । -- / मैं आश्रम में दाखिल हुआ, उसके थोड़े ही दिन बाद वे हिन्दी प्रचार के लिए मुझे मद्रास की ओर भेजनेवाले थे। मैंने हिम्मतपूर्वक 'ना' की यह एक ही प्रसंग था कि जब बापूजी ने कहा हो, और मैंने सीधा इंकार किया हो। मैंने कहा, "मैं आपके पास आया हूं आपके विचार, आपकी कार्य-पद्धति और आपका व्यक्तित्व समझने के लिए आपके प्रधान कार्य के साथ सह-कार्य करने के लिए मैं जानता हूं कि हिन्दी का प्रचार स्वराज्य की दृष्टि से और स्वदेशी सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से आपके लिए बहुत महत्व का सवाल है । फिर भी इस समय आश्रम छोड़कर दूसरा काम लेने की बात मुझे सूझती नहीं। फिर भी आपकी आज्ञा ही होगी तो मैं उसे मान लूंगा।" बापूजी ने मेरी बात मान ली और गुजराती समाज की सेवा करके उसको अपनाने का मुझे उत्तम से उत्तम मौका दिया। इसके लिए मैं आजन्म उनका ऋणी हूं। किन्तु आगे चलकर गुजरात छोड़ने की मैंने बात की और यह बात स्वीकार किए बिना चारा नहीं, ऐसा बापूजी ने देखा, तब उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार कार्य आखिर मुझे पकड़ा ही दिया। १५८ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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