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कि एक बात का मूल स्रोत कहीं का भी हो, संस्कृति तो विश्व के सबों की संपत्ति हैं। इस बात को लेकर काकाजी ने पंचतंत्र, हितोपदेश आदि का विश्व में फैलना, फिर उनमें से कुछ कथाओं का भारत में वापस आना, या भक्ति-आंदोलन के भारत के अनेक भागों में एक साथ उत्पन्न होना आदि मनोरंजक उदाहरण दिये। फिर वे धर्म-समन्वय की बात करने लगे। यही उनके जापान-भ्रमण का मुख्य उद्देश्य था। धर्म-समन्वय का एक उदाहरण उन्होंने बताया कि नेपाल में एक मंदिर है, जो बौद्धों का भी है और हिंदुओं का भी। एक मंदिर, एक मूर्ति और एक पुजारी। इस मंदिर को बौद्ध लोग भी मानते हैं और हिंदू लोग भी पूजा के लिए आते हैं। दूसरी ओर मैंने बताया कि जापान में किसी-किसी बौद्ध मंदिर के अहाते में शिन्तो मंदिर बना हुआ है और वहां पूर्ण सह-अस्तित्व होता है। काकाजी ने भारत में धर्म-संबंधी जटिल समस्याओं की बात करते हुए कहा, "विश्व-धर्म-समन्वय के मेरे प्रयत्न में जापान के लोग ही और तुम ही अन्धी सहायता दे सकते हो।"
मेरे लिए सबसे आनंददायक प्रसंग काका-गांधी मिलन का था। उन्होंने बताया कि वे १९१५ में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ शांतिनिकेतन में थे। वहां गांधीजी आए तो उनसे खूब बातें कीं। बिहार में रह रहे अपने मित्र को बुलाकर गांधीजी से मिलाया। दोनों मित्रों ने मिलकर गांधीजी के विचारों का अध्ययन किया और अंत में काकाजी ने निश्चय किया कि मैं अपना हृदय गुरुदेव को अर्पण करूंगा, पर मेरा देश-सेवाकार्य तो गांधीजी को समर्पित करना उचित है। इस निश्चय के साथ वे गांधीजी के आश्रम गए। इस प्रकार गांधीजी के बारे में बहुत-सी बातें बताते हुए उन्होंने समझाया कि आनेवाली गांधी-जन्म-शती में जापान को क्या-क्या काम करने चाहिए।
इधर मुझे भी गांधीजी के हिंदुस्तानी-आंदोलन, शिक्षा-नीति आदि के संबंध में प्रश्न-पर-प्रश्न करने में बड़ा आनंद आ रहा था, विशेषकर मेरे लिए यह आशातीत आनंद की बात थी कि जब मैंने हिंदी साहित्य और गांधी-दर्शन के बारे में घूमते हुए प्रेमचन्द, जैनेन्द्रकुमार और दिनकर के नाम लिये तो मालूम हुआ कि काकाजी इन तीनों के अच्छे मित्र हैं । मुझे इन तीनों लेखकों के बारे में ऐसी-ऐसी बातें मालूम हुईं, जो पुस्तकों में नहीं मिल सकती थीं।
हम दोनों हिंदी में बातें करते रहे । पर काकाजी की मातृभाषा मराठी है। उन्होंने बताया कि जब कभी आवश्यकता हो तो वे गुजराती में भी बातें करते हैं। वे अंग्रेजी भी खूब जानते हैं। युवावस्था में तो वे अंग्रेजी साहित्य के प्रेमी थे। पर अब कुछ लिखना हो तो वे अंग्रेजी का प्रयोग नही करते, क्योंकि यह जनता की भाषा नहीं है । उनका विश्वास है कि जनता की सेवा करने के लिए जनता की भाषा में लिखना ही उनका कर्तव्य है। उनके मस्तिष्क में सदा जनता रहती है। उनके सब काम जन-हित के लिए होते हैं। उनके हृदय में न केवल अपने मित्रों के प्रति वरन जनता के प्रति अपार प्रेम है। तभी तो उनके शरीर और उनकी प्रत्येक चाल से विचित्र आत्मीयता छलक पड़ती है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि इस भेट-वार्ता से मुझे सबसे अधिक लाभ और आनंद मिला है। अपने प्रबल व्यक्तित्व से काकाजी मुझे अपनी ओर खींचते रहे और साथ ही गांधीजी की बातें करते-करते मुझे इस भ्रम में डाल दिया कि मुझे काकाजी के माध्यम से गांधीजी का शिष्य बनने का गौरव मिल गया है और साथ ही काकाजी ने मुझे प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार और दिनकरजी का मिन बना दिया है।
काकाजी माने या न मानें, मैंने अपने आपको काकाजी का चेला माना। अब मेरा कर्तव्य है कि मैं भी ६५ वर्ष की आयु तक स्वस्थ रहूं और किसी-न-किसी तरह से जनता की सेवा करता रहूं। मैं भगवान से प्रार्थना करता रहूंगा कि काकाजी और अधिक वर्षों तक अपने प्रिय कार्य, भेंट-वार्ता आदि से लोगों को प्रेरणा देते रहें और गुरुजी के अनुकरण करने के बहाने मुझ नालायक चेले को भी दीर्घ आयू मिले।
१२० / समन्वय के साधक