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आनन्द और मंगल का अनुभव कर सकते हैं तो हम मृत्यु से क्यों न खुश हों?"
"दीवाली हमें सिखाती है कि मृत्यु में ही नव-जीवन प्रदान करने की शक्ति है, दूसरों में नहीं । दीवाली का त्योहार मौत का उत्सव है, मृत्यु का अभिनन्दन है, मृत्यु की श्रद्धा है। निराशा से उत्पन्न होनेवाली आशा का स्वागत है। रुद्र ही शिव है । मृत्यु का दूसरा रूप ही जीवन है।
" मृत्यु अग्नि नहीं है, बल्कि तेजस्वी रत्नमणि है, जिसे छूने में कोई खतरा नहीं है।"
काकासाहेब के लिए यह मात्र वाग्जाल, मात्र छूछे शब्दों का समूह नहीं है। इनके अर्थ को जिया है उन्होंने। इस आयु में अपने बेटे की आकस्मिक मृत्यु पर मैंने उनको वैसा ही शान्त-सुस्थिर देखा है। दर्द न हुआ हो, ऐसा नहीं, परन्तु उसके प्रथम आघात को सहकर उन्होंने तुरन्त रुद्र के शिवरूप को देखा और शान्त हो गये। कोई और व्यक्ति होता तो स्वयं ही कातर-विह्वल न होता, बल्कि पूरे वातावरण को तरल-विगलित करके शोक की विभीषिका को और उग्र कर देता।
काकासाहेब की प्रतिभा की थाह लेना इस छोटे-से लेख में सम्भव नहीं हो सकता। एक झलकमान है यह उनकी उस सागर-रूपिणी मेधा की, जिसके गर्भ में असंख्य अमूल्य रत्न छिपे पड़े हैं। आज के भ्रष्ट युग के सन्दर्भ में यह सीख हमें हृदयंगम कर लेनी चाहिए कि "राजनीति नहीं किन्तु मानव-समाज की सांस्कृतिक नीति ही दुनिया को बचा सकेगी और मानव-समाज को नया प्रस्थान मिलेगा। अराजकता अपरिहार्य-सी बन रही है। इसमें अगर हम फंस गये तो हमारा खात्मा है। अपने को बचा सके तो जागतिक संस्कृति की स्थापना होगी।"
इसके लिए वे एक राष्ट्रीय चरित्न की अनिवार्यता पर जोर देते हुए लिखते हैं, "सब लोगों के मन में मातृभूमि के बारे में एक-सी निष्ठा होनी ही चाहिए, किन्तु इतना बस नहीं है । सब लोगों में, सब पक्ष के, सब धर्म के, सम्प्रदाय और फिरके के लोगों के मन में एक-दूसरे के प्रति भी पूरी-पूरी आत्मीयता और निष्ठा होनी चाहिए। ऐसी निष्ठा खरीदी नहीं जा सकती। खरीदने की रीति खतरनाक होती है। हम बहुत हुआ तो खामोशी खरीद सकते हैं, न कि निष्ठा । निष्ठा तो उज्ज्वल राष्ट्रीय चारित्र्य से ही उत्पन्न हो सकती है।"
उनकी ६५ वीं जन्म-जयन्ती के अवसर पर उनके प्रति श्रद्धा ज्ञापित करने का एकमात्र मार्ग यही है कि हम राष्ट्रीय चरित्र के अर्थ जानें ही नहीं, उन्हें जीना भी सीखें। तभी, केवल तभी, हम देश के भविष्य के प्रति आश्वस्त और एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान हो सकेंगे।
हुदूदे जात से बाहर निकल कर देख जरा, न कोई गैर है, न कोई रकीब लगता है।
दुर्लभ अवसर हेनरी ई० नाइल्स
श्री काकासाहेब कालेलकर की मैत्री से मेरा जीवन बड़ा समृद्ध हुआ है, ऐसा मैं अनुभव करता हूं। १९५३ में जब मैं अमरीका के 'टेकनिकल मिशन ट इंडिया' का डिप्टी डायरेक्टर था तब श्री काकासाहेब से पहली बार मिला था। महात्मा गांधी के निकटवर्ती स्थजनों से मिलकर उनसे गांधीजी के आदर्श और विचारों के बारे में अधिक जान लेने की आशा लेकर ही मैं भारत आया था।
व्यक्तित्व : संस्मरण | ११५