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भी प्रकट कर सकते हैं। नदियों की चर्चा करते समय वे कवि हो उठते हैं और रवीन्द्र गीत निर्झर के आजि, वसन्त जाग्रत द्वारे' का अर्थ समझाते -समझाते अन्तर्जातीय विवाहों की उपयोगिता प्रतिपादित करने लगते हैं । उनका कहना कि "हम संकुचितता छोड़कर, सारे जगत् से एकरूप होना, विश्व के आनन्द में अपना आनन्द मानना और अनुभव करना सीखें। अपना पराया भाव गया, स्वार्थं गल गया और क्षुद्र वासनाओं का अस्त हुआ, फिर तो मात्र आनन्द देकर ही वह पाने का शेष रहता है । अपनी आन्तरिक मधुरता यदि सारे विश्व को दी तो क्या बिगड़ा? अपने जीवन के सुभग क्षण में बसन्त की बहार आने पर हम अपना सर्वस्व अर्पण करने को बाहर क्यों न निकालें ? अपना जीवन कुंठित करके अवगुण्ठन में उलझे क्यों रहें?
आजि बसन्त जाग्रत द्वारे । तव अवगुण्ठित कुण्ठित जीवने कोरो ना बिडम्बित तारे ।"
हिन्दी भारत की राष्ट्र-भाषा क्यों, अंग्रेजी क्यों नहीं ? इसका विवेचन करते हुए वे कहते हैं, "अंग्रेजी जानने वाले लोग अपनी एक अलग जाति बनाते हैं, दूसरी भाषाएं सीखते ही नहीं। अपनी-अपनी जन- भाषा तो बचपन में ही उन्हें सीखनी पड़ी, नहीं तो उसे भी नहीं सीखते । "
वे हिन्दी को स्वीकार करने के दो प्रमुख कारण मानते हैं, एक तो उसकी लिपि नागरी है, जो संस्कृत की लिपि होने के कारण भारत में सर्वत फैली हुई है। दूसरा कारण यह है कि सब प्रान्तों के सन्तों ने उसे अपनाया है ।
वे लिखते हैं, "चीन, जापान, बर्मा, श्रीलंका, इंडोनेशिया आदि देशों के साथ हमारा सम्पर्क आज अंग्रेजी के द्वारा बढ़ रहा है। इसमें सहूलियत चाहे जितनी हो, एशिया के लिए यह शाप रूप ही है। एशियायी संस्कृति जैसी चीज पर अंग्रेजी के कारण हमारा विश्वास ही नहीं बैठता । "
काकासाहेब ने संस्कृति का अध्ययन दीवारों से पिरे विद्यालयों में नहीं किया। वे सही अर्थों में परिव्राजक हैं। उन्होंने विश्व भ्रमण ही नहीं किया, प्रकृति के प्रांगण में भी वे मुक्त होकर घूमे हैं। अनेक सरिताओं के अथ - इति को बहुत पास से देखा है उन्होंने, “नदी के किनारे-किनारे घूमने जायं तो प्रकृति के मातृ-वात्सल्य के अखण्ड प्रवाह का दर्शन होता है। नदी बड़ी हो और उसका प्रवाह, धीर गम्भीर हो तब तो उसके किनारे पर रहनेवालों की शान-शौकत उस नदी पर ही निर्भर करती है। सचमुच, नदी जन-समाज की माता है... नदी ईश्वर नहीं है, बल्कि ईश्वर का स्मरण करानेवाली देवता है। यदि गुरु को वन्दन करना आवश्यक है तो नदी को भी वन्दन करना उचित है।"
नदी ही नहीं, त्योहार भी भारतीय संस्कृति की आत्मा है । काकासाहेब ने उनका विश्लेषण करते हुए उनके पीछे के मूल सांस्कृतिक आधार को खोजा है। दीवाली के नाना रूपों का परिचय देते-देते काकासाहेब बहुत गहरे डूब जाते हैं और मृत्यु के रहस्य को समझाने लगते हैं, "मृत्यु अर्थात् घड़ी-भर का आराम, मृत्यु अर्थात् नाटक के दो अंकों के मध्यावकाश की यवनिका, मृत्यु अर्थात् वाणी के अस्खलित प्रवाह में आनेवाले विराम-चिन्ह ।...मृत्यु तो पुनर्जन्म के लिए ही है । प्रत्येक नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी का तेज लेकर जवानी के जोश में आगे बढ़ती रहती है और पुरानी पीढ़ी बुढ़ापे के परावलम्बन को महसूस करती हुई लुप्त हो जाती है। यह कैसे भुलाया जा सकता है कि बूढ़ा निश्चंतन बना हुआ जाड़ा प्रफुल्ल नववसन्त की उंगली पकड़ कर ले आता है ? इस बात को भुलाने से काम नहीं चलेगा कि हेमन्त की काटनेवाली ठण्डक में ही वसन्त का प्रसव है ।"
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'दीवाली के दिन वसन्त की अपेक्षा से, वसन्त की मार्ग प्रतीक्षा से, अगर हम दीपोत्सव कर सकते हैं, ११४ / समन्वय के साधक