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________________ समन्वय-योग उमाशंकर जोशी 00 हांगकांग से विमान चला और बेंगकॉक की ओर उड़ा। थोड़ी देर के बाद देखा कि कोई यात्री महोदय मेरी बैठक की पीठ पर हाथ रखे हुए कुछ झुककर खिड़की से बाहर देखने का प्रयत्न कर रहे हैं। मैंने दृष्टि ऊंची की। विस्मय से मेरे मुंह से निकला, "काकासाहेब, आप?" उतने विस्मय से उन्होंने कहा, "अरे, तू ?" पृथ्वी से बीस-पच्चीस हजार फुट की ऊंचाई पर यह आकस्मिक मिलन बहुत आनन्दप्रद था। काकासाहेब चीन होकर आ रहे थे। मैं तोक्यो-क्योतो में अन्तर्राष्ट्रीय पी० ई० एन० परिषद में सम्मिलित होकर लौट रहा था। गुसलखाने से निकलकर उनको खिड़की द्वारा भूतलदृश्य देखने का कुतूहल हुआ, और उसने हमें मिला दिया। यह कुतूहल-अदम्य कुतूहल-काकासाहेब के स्वभाव का एक प्रमुख लक्षण है। "आश्चर्यवत् पश्यति"सृष्टि को आश्चर्यरूप से देखने में उनकी साधना परिसीमित नहीं है। समस्त आश्चर्यों के पीछे जिसकी आंखमिचौनी चल रही है, उसको पहचाना ('एनं वेद')-ऐसा संतोष पाना, यह उनकी साधना का लक्ष्य है। इस आश्चर्यलोक कोआनन्दलोक के रूप में पाना, परमात्म-दर्शन के माध्यम के रूप में पाना, यही तो वह साधन है। काकासाहेब जीवन-भर घुमक्कड़ रहे हैं। मूल महाराष्ट्र-कर्णाटक की सीमा पर जन्मे। बंगाल में शांतिनिकेतन में कुछ मास काम किया, फिर गांधीजी के साथी बनकर गुजरात को कर्मभूमि बनाया। कार्यवश सारे देश में घूमते रहे। जैसे एक तितली एक फूल से उड़कर दूसरे पर बैठती है और वनस्पति के फलने-फूलने में सहायक होती है, वैसे परिव्राजक काकासाहेब एक अदृष्ट सेवा तो कहते ही रहे । (यह मिसाल उन्होंने ही दी है, परन्तु उससे पूरा वर्णन नहीं मिलता।) सम्पूर्ण परिभ्रमण में काकासाहेब की एकात्मकता-दृष्टि पुष्ट होती रही और जहां-जहां वे गये, वहां-वहां उस दृष्टि का प्रभाव भी पड़ता रहा। पूर्ववय में ही उन्होंने कुछ समय निकालकर, एक-दो मित्रों के साथ, हिमालय में दो हजार मील का परिभ्रमण किया, मानो आत्मदृष्टि के विकास की, आत्मदृष्टि को केन्द्रीभूत करने की, प्रयोगशाला चलाई। हिमालय के प्रोत्साहक एकान्त में घुसते-घूमते उन्होंने भारतीत संस्कृतिधारा की गति, उसका लक्ष्य, उसका वैविध्य होने पर भी एकात्म स्वरूप चित्त में धारण किया। धर्मप्राण जीवन की महिमा विशेष रूप से हृदय में उतार ली। उसका परिचय, बल्कि आस्वाद, उनकी हिमालयनो प्रवास' पुस्तक में जी-भर कर मिलता है। काकासाहेब के लेखन में और जीवन-व्यवहार में इस एकात्मदष्टि का आलोक सूचारु रूप से निरन्तर प्रकट होता रहता है। स्वराज मिलने पर्यन्त विदेश यात्रा के प्रति उन्होंने रुचि नहीं रक्खी। भारत स्वतंत्र होने पर उन्होंने विदेशों में भी चारों ओर यात्रा की। यूरोप, अमरीका, अफ्रीका के देशों में घूमे। जापान छः बार गये । हिमालय में जो पाया था, वह अब और भी परिपुष्ट हुआ। भारत की एकात्मता के दर्शन वास्तव में मानवजाति की एकात्मता के दर्शन के रूप में निखर उठा। काकासाहेब बताते हैं कि भारत में अनेक जातियां हैं, भाषाएं हैं, दुनिया के प्रमुख धर्मों के अनुयायी हैं, मानो भारत संसार की एकात्मता की एक प्रयोगशाला-सा ही बन रहा है। काकासाहेब ने भारत के जीवन को जिस व्यापक दृष्टि से देखा था, उसने ही उनको मानव-जाति के ऐक्य को समझने में सहायता की। व्यक्तित्व : संस्मरण | १०६
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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