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________________ मेरा हृदय-परिवर्तन नायबराज कालरा DD १९४७ में पाकिस्तान बनने के बाद हम लोग सह परिवार पाकिस्तान से दिल्ली आ गये। यहां आकर रहने की जगह और रोजगार के लिए दुकान मिल गयी। परिवार सहित हम यहां बस गये। लेकिन पाकिस्तान बनने पर जो हालात आंखों से देखे थे और कानों से सुने थे उनका गहरा असर मन पर हावी था और रोजगार करते हुए भी पाकिस्तान की याद मन से भूलती नहीं थी। पिताजी और माताजी वृद्ध थे और पाकिस्तान का बनना भी अपनी आंखों से देख आये थे। इसलिए वे यहां आकर सत्संगों में ज्यादा समय देने लगे । मंदिर जाना, कथाकीर्तन सुनना, साधु-संतों को संग लाकर भोजन खिलाना, उनका सत्संग करना आदि कार्यों में वे ज्यादा समय देने लगे। माता और पिताजी के इस कार्यक्रम से हमें भी संतों के संग का और कथा-कीर्तन का मौका मिल जाता। आखिर संतों के संग का असर मेरे मन पर जोरों से होना शुरू हो गया, और मैंने १६५६ में घरवालों को जवाब दे दिया कि मैं अब दुकान का कारोबार नहीं करूंगा। १९५६ में मैंने दुकान पर जाना छोड़ दिया और कार्यक्रम बनाया कि सुबह दस बजे खाना खाकर दोतीन पस्तकें जोगांधीजी द्वारा लिखित थीं और एक किशोरीलाल मशरूवाला की थी, लेकर कोटला फिरोजशाह में चला जाता और शाम पांच बजे तक वहां रहता। कभी सो जाता, कभी पुस्तकों का अध्ययन करता। घरवालों को मेरा इस तरह का व्यवहार अच्छा नहीं लगता था। मगर वे इस बात से संतुष्ट थे कि घर छोड़कर हरिद्वार वगैरा दूसरी जगह नहीं चला गया है। कोटला फिरोजशाह जाते करीब तीन महीने हो गये । एक दिन शाम को वहां से वापस आने लगा। हरिजन बस्तीवाली गली से निकलकर मैंने मन में विचार किया आज राजघाट गांधी समाधि होकर घर जाऊंगा। जब हरिजन बस्ती की सड़क से राजघाट जाने लगा तो थोड़ा आगे सड़क के किनारे एक छोटी-सी तख्ती एक दरव जे के साथ लगी देखी। उस पर लिखा था-काकासाहेब कालेलकर। और एक बोर्ड था गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा का। बोर्ड की तरफ मेरा ध्यान नही गया। तख्ती को देखकर मन में खयाल आया, काश, मैं काकासाहेब को देख लेता। लेकिन मन में सोचा, आश्रम में जाऊं कैसे? ___ आखिर डरते-डरते अंदर दाखिल हुआ। यह पहला ही मौका आश्रम-प्रवेश का था। अंदर जाकर मैं सीधा दफ्तर की तरफ गया; डरते-डरते दफ्तर में दाखिल हुआ।एक तरफ के कमरे के दरवाजे पर सार्वजनिक पुस्तकालय लिखा हुआ था। दूसरे दफ्तरवाले कमरे में गया। सौभाग्य से वहां शांतिभाई बैठे मिले। उठकर वे आकर मझसे मिले । उन्होंने कहा, 'आइये, कैसे आये हो ?" मैंने कहा, "इधर से गुजरते आपका आश्रम देखने आया है। मुझे अपने आश्रम के संबंध में कुछ समझाइये।" उन्होंने 'मंगल प्रभात' के दो पर्चे मुझे दिये और कहा, “आप इनको पढ़ें। आपको हमारे आश्रम के संबंध में तथा उसकी प्रवृत्तियों के संबंध में सब जानकारी मिलेगी।" मैंने चार आने देकर दो प्रतियां शांतिभाई से ले लीं। और खुशी-खुशी घर वापस आया। एक-दो दिन में मैंने उन अंकों को अच्छी तरह पढ़ा। मेरे मन में और ज्यादा जिज्ञासा पैदा हुई और विश्वास हुआ कि असली काम तो इन्हीं लोगों का है और ये प्रवत्तियां बिलकूल ठीक हैं। चार दिन के बाद फिर मैं दफ्तर में गया। शांतिभाई फिर मुझे मिल गये। मेरे साथ आश्रम-प्रवृत्तियों के संबंध में बातचीत की। बातचीत में ही मैंने कहा, "भाई साहब, आपके कामों की १०० | समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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