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तक। | है। यह जीव का असंयमित और अमर्यादित आचरण है। जीव व्रतों का पालन नहीं करता।
प्रमाद : प्रमाद का अर्थ है आत्म जागृति का अभाव। आत्मचेतना के सुप्त रहने से जीव में सक्रियता समाप्त हो जाती है। जीव के अन्दर शुभ प्रवृत्तियों के प्रति अनास्था उत्पन्न हो जाती है। इसमें जीव की विवेक शक्ति कुण्ठित हो जाती है। प्रमाद की उत्पत्ति भी कषाय जनित है जिसके कारण जीव विषयाशक्त रहता है। __कषाय : कर्म पुद्गलों के श्लेष के कारण आत्मा में उत्पन्न होने वाले कलुषित परिणाम को कषाय कहा गया है। यह आत्मा का विकार है जो कर्म पुद्गलों का परिणाम है। कषाय मूलतः राग और द्वेष है जो विस्तार में क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप में चार प्रकार का माना गया है यह चार कषाय अपनी तीव्रता और मन्दता के आधार पर सोलह रूपों में विभाजित होते हैं।
योगः शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति के कारण आत्म प्रदेश में प्रकम्पन होता है। इसी को योग कहा गया है। यह शुभ एवं अशुभ दोनों रूपों में होता है। योग इन्द्रिय व्यापार है जो शरीरधारी जीव में सदैव सक्रिय
रहता है। ____बंधन के उपरोक्त पाँचों कारणों में मूल कारण कषाय और योग हैं। मिथ्यादर्शन, अविरति और प्रमाद मूलतः
कषाय जनित जीव के लक्षण हैं। कषाय की उत्पत्ति जीव के साथ ही होती है अर्थात् जीव में कषाय का भाव जन्म
के साथ ही होता है। मूलतः कषाय की उत्पत्ति का आधार अज्ञान है। अज्ञान के कारण ही जीव सांसारिक विषयों । से जुड़ता है और संसार के प्रति राग या द्वेष भाव पैदा करता है। इस तरह कषाय जीव के अन्दर उत्पन्न होने वाला एक भाव है जो अज्ञान से उत्पन्न होता है।
इस प्रकार मिथ्यात्व या कषायात्मक अवस्था में साम्य है। बिना कषाय, मिथ्यात्व नहीं हो सकता और बिना मिथ्यात्व के कषाय की उत्पत्ति असम्भव है। इसलिए अज्ञान या कषाय ही बंधन का मूल कारण है।
सांख्य दर्शन में बंधन का कारण व स्वरूप : सांख्य दर्शन बंधन का मूल कारण अविवेक या अज्ञान को मानता है। अज्ञान की उत्पत्ति पुरूष में तब होती है जब वह प्रकृति के सम्पर्क में आता है। अविवेक के कारण पुरुष अपना निज स्वरूप नहीं समझ पाता फलतः वह प्रकृति जन्य विकारों से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है सांख्य का यही बंधन सिद्धांत है। इस प्रकार प्रकृति और पुरुष का संबंध ही बंधन है। यह सम्बद्धता अज्ञान से अभिप्रेरित होती है। बिना अज्ञान के पुरुष का प्रकृति से जुड़ाव भी पुरुष को बंधनग्रस्त नहीं कर सकता। बंधन बिना प्रकृति के साहचर्य से घटित नहीं हो सकता अतः बंधनके लिए संयोग आवश्यक है। अज्ञान ही पुरुष का प्रकृति से संयोग कराता है। प्रकृति पुरुष का यह सम्बंध भोक्ता-भोग्य संबंध कहलाता है।
बंधन का कारण अविवेक : सांख्य के अनुसार पुरूष का प्रकृति के साथ जुड़ाव तभी होता है जब पुरुष के अन्दर अज्ञान या अविवेक रहता है। यही अविवेक पुरुष प्रकृति का संयोग कराता है। सांख्य के अनुसार नाशवान, अपवित्र एवं दुख स्वरूप शरीर को पवित्र और सुखात्मक मानना ही अविवेक या अविद्या है। सांख्यकारिका में अविवेक को विपर्यय कहा गया है और इसे ही बंधन का एक मात्र कारण माना गया है।26 विपर्यय का अर्थ ज्ञान का विपरीत भाव है। इसमें बुद्धि के अन्तर्गत तामसिक गुणों की प्रधानता रहती है। अविवेक की उत्पत्ति, प्रकृति पुरुष के संयोग से अंतःकरण या चित्त में होती है।
अविवेक का स्वरूप : सांख्य में बंधन का मूल हेतु विपर्यय है जिसका तात्पर्य ज्ञानाभाव न होकर विपरीत ज्ञान है इसे ही योग सूत्र में मिथ्याज्ञान कहा गया है। इसी को अविद्या या अविवेक भी कहा जाता है। यह एक प्रकार से बुद्धि का धर्म है जिसमें तमोगुण की प्रधानता होती है। सांख्य कारिका विपर्यय के पाँच प्रकार मानती है, तम,