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म तिमा वातावन | एवं खण्डविभक्ति, जीवन के रूप-वैविध्य का समष्ट्यात्मक चित्रण, कथातत्त्व में लोकतत्त्वों का समायोजन,
उदात्त गम्भीर शैली, रमणीयार्थक शब्दों से सुरभित और रसात्मक वाक्यों से विमण्डित काव्यभाषा का विनियोग आदि कतिपय गुणों के पारस्परिक समायोजन की सारस्वत समृद्धि ही शास्त्रीय प्राकृत-महाकाव्यों को स्वतन्त्र व्यक्तित्व प्रदान करती है। शास्त्रीय प्राकृत-महाकाव्यों को समग्र सामाजिक जीवन का प्रतिनिधि-काव्य इसीलिए कहा जाता है कि इनमें जातीय गुणों एवं परम्परागत अनुभवों का रसपेशल रूप अपनी सम्पूर्ण विच्छित्ति के साथ प्रतिष्ठित है। देश-कालगत स्वरूप की बाह्य भिन्नता के बावजूद इनके आभ्यतरिक मूल्यों, सहज-तरल गुणों एवं साहित्यिक संस्कार की आभा सदाप्रभ बनी रहती है।
प्राकृत-महाकाव्यों का वैशिष्ट्य
शास्त्रीय प्राकृत-महाकाव्यों के परिप्रेक्ष्य में हम महाकाव्य के वैशिष्ट्यों का इस प्रकार निर्धारण कर सकते हैं कि महाकाव्य में बहुविध घटनाओं का प्रवाह, फल-प्राप्ति की ओर अग्रसर कथावस्तु की विभिन्न भंगिमाओंचारियों में नर्तनशील रहता है। कथावस्तु का माध्यम युगविशेष के समग्र जीवन के चित्रण के लिए अपनाया जाता है। कथा की चरम परिणति चिन्तन की विभिन्न ऊर्मियों में तरंगित होती हुई भी अन्त में किसी एक महत्त्व में ही समाहित होती है। तयुगीन समस्त मानव-मनोदशाओं और सम्पूर्ण सामाजिक कार्य-व्यापारों का यथातथ्य प्रत्यंकन ही प्राकृत-महाकाव्यों का महान् उद्देश्य है।
सेतुबन्ध ___प्राकृत के प्रसिद्ध-प्रमुख महाकाव्यों में 'सेतुबन्ध' का शीर्षस्थ स्थान है। यह महाकाव्य महाकवि प्रवरसेन की प्राकृत-निबद्ध एक उल्लेखनीय कृति है। कथाशिल्प एवं घटना-विकास की दृष्टि से 'सेतुबन्ध' की द्वितीयता नहीं है। यदि तात्त्विक समकक्षता की बात की जाय, तो कोई भी संस्कृत-महाकाव्य इसके समक्ष उन्नीस ही पड़ेगा। रामायण-प्रसिद्ध दो प्रमुख घटनाएँ-सेतु बन्धन और रावण-वध इसके वर्ण्य विषय हैं। कवि ने समुद्र पर । सेतु-रचना का उत्साहपूर्ण एवं विस्तृत चामत्कारिक चित्रण बड़ी तल्लीनता से, हृदयहारिणी शैली में किया है। । इसलिए इस काव्य की फल-परिणति रावण-वध होते हुए भी, इसकी 'सेतुबन्ध' आख्या ने ही प्रमुखता प्राप्त की और 'दसमुहवहो' नाम गौण पड़ गया। कहना यह कि सेतु-रचना ही इस महाकाव्य के घटना-विन्यास का । केन्द्रबिन्दु है। अतएव 'सेतुबन्ध' नाम की अन्वर्थता कहीं अधिक है। इस महाकाव्य में 1291 गाथाएँ हैं, जो पन्द्रह आश्वासों में गुम्फित हैं। अकबर जलालुद्दीन के सचिव एवं प्रसिद्ध टीकाकार रामदास भूपति (1652 विक्रमाब्द)ने इस महाकाव्य की महनीय टीका 'रामसेतुप्रदीप' नाम से लिखी है, जिससे टीकाकार का मन्तव्य इस महाकाव्य को एक और आख्या 'रामसेतु' से विभूषित करने का भी स्पष्ट होता है। अलवर के कैटलॉग के अनुसार, इसका एक तीसरा नाम 'रावणवध' भी है।
इस महाकाव्य के रचयिता महाकवि प्रवरसेन हैं। काव्येतिहास में प्रवरसेन की ख्याति ख्यातनामा कवियों में प्रचुर चर्चा का विषय रही हैं। बाणभट्ट ने सगर्व उद्घोषणा भी की है :
कीर्तिःप्रवरसेनस्य प्रयाता कुमुदोज्वला।
सागरस्य परं पारं कपिसेनेव सेतुना॥ (हर्षचरित : 1.14.5) । अर्थात् प्रवरसेन की कुमुदोज्ज्वल कीर्ति, सेतु के द्वारा कपिसेना की भाँति समुद्रके उस पार तक चली गई है। अर्थात्, इसकी ख्याति सीमान्तपारगामिनी है।
कुल मिलाकर, महाराष्ट्री प्राकृत में निबद्ध ‘सेतुबन्ध' महाकाव्य साहित्यशास्त्र, विशेषकर अलंकारशास्त्र एवं ।