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________________ 400 स्मृतियों के वातायन से बनाया गया है। तीर्थंकरों, गणधरों और अन्यान्य आचार्यों ने कथा की शक्ति को पहचाना था, इसलिए उन्होंने अपने विचारों के प्रचार के लिए कथा को सर्वाधिक महत्त्व दिया। प्राकृत - निबद्ध अंग और उपांग- साहित्य में प्राप्त, आर्हत सिद्धान्तों को अभिव्यक्ति देनेवाले आख्यान प्रेरक और प्रांजल तो हैं ही, अन्तर्निगूढ संवेदनशील भावनाओं और सांस्कृतिक अन्तर्भावों के समुद्भावक और सम्पोषक भी हैं । आगमकालीन इन आख्यानों का उद्देश्य है- मिथ्यात्व से उपहत अधोगामिनी मानवता को नैतिक और आध्यात्मिक उदात्तता की उर्ध्वभूमि पर प्रतिष्ठापित करना । आगमकाल प्राकृत - कथासाहित्य का आदिकाल या संक्रमण - काल था । इस अवधि में नीति और सिद्धान्तपरक प्राकृत-कथाएँ क्रमशः साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कथाओं के रूप में संक्रमित हो रही थीं, अर्थात् उनमें सपाटबयानी के अतिरिक्त साहित्य-बोध और सांस्कृतिक परिज्ञान की अन्तरंग सजगता और रसात्मक अभिव्यक्ति की आकुलता का संक्रमण हो रहा था । अर्हतों की उपदेश - वाणी की तीक्ष्णता और रूक्षता को या उसकी कड़वाहट को प्रपानक रस के रूप में परिणत कर अभिव्यक्त करने की चिन्ता प्रथमानुयोग के युग में रूपायित हुई और संस्कृति - सिक्त साहित्य की सरसता ! से सिक्त होने का अवसर मिल जाने से गुरुसम्मित वाणी जैसी प्राकृत-कथाएँ कान्तासम्मित वाणी में परिवर्त्तित 1 होकर ततोऽधिक व्यापक और प्रभावक बन गई और इस प्रकार, संकलन की प्रवृत्ति सर्जना - वृत्ति में परिणत 1 हुई। विषय-निरूपण की सशक्तता के लिए सपाट कथाओं में अनेक घटनाओं और वृत्तान्तों का संयोजन किया 1 गया, उनमें मानव की जिजीविषा और संघर्ष के आघात - प्रत्याघात एवं प्रगति की अदम्य आन्तरिक आकांक्षाओं के उत्थान - पतन का समावेश किया गया; इसके अतिरिक्त उनमें सामाजिक और वैयक्तिक जीवन में विकृतियाँ उत्पन्न करनेवाली परिस्थितियाँ चित्रित हुईं और उनपर विजय प्राप्ति के उपाय भी निर्दिष्ट हुए । पाण्डित्य के साथ-साथ सौन्दर्योन्मेष, रसोच्छल भावावेग, प्रेमविह्वलता, सांस्कृतिक चेतना और लालित्य की भी प्राणप्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार, प्राकृत-कथाएँ पुनर्मूल्यांकित होकर आख्यान-साहित्य के समारम्भ का मूल कल्प बनीं और उनका लक्ष्य हुआ- कर्ममल से मानव की मुक्ति और जीवन की उदात्तता के बल पर ईश्वरत्व में उनकी चरम परिणति या मोक्ष की उपलब्धि । इस प्रकार, स्पष्ट है कि प्राकृत - कथासाहित्य की मूलधारा आगमिक कथाओं से उद्गत होकर समकालीन विभिन्न प्राकृतेतर कथाओं को संचित - समेकित करती हुई पन्द्रहवीं - सोलहवीं शती तक अखण्ड रूप से प्रवाहित होती रही। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने उचित ही लिखा है कि " आगम - साहित्य प्राकृत - कथासाहित्य की गंगोत्तरी है । ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अनुत्तरौपपातिकदशा आदि अंग तथा राजप्रश्नीय, कल्पिका, कल्पावतंसिका आदि उपांग प्राकृत-कथासाहित्य के सुमेरुशिखर हैं।” उपर्युक्त उहापोह से यह निष्कर्ष स्थापित होता है कि प्राकृत-साहित्य की विभिन्न विधाओं में कथा - साहित्य | का ऊर्जस्वल महत्त्व है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि प्राकृत - कथासाहित्य ने प्राकृत-काव्यों को अपदस्थ किया है। इसलिए कि कथा - साहित्य में यथार्थता का जो सातत्य है, उनका निर्वाह काव्य - साहित्य में प्रायः कम पाया जाता है । यद्यपि, अस्वाभाविक आकस्मिकता और अतिनाटकीयता से प्राचीन प्राकृत - कथासाहित्य भी मुक्त नहीं है। युगीनता के अनुकूल कथा - साहित्य के शिल्प और प्रवृत्ति में अन्तर अस्वाभाविक नहीं । घटनाओं और चरित्रों के समानान्तर विकास का विनियोग प्राकृत-कथाकार अच्छी तरह जानते थे। सांस्कृतिक चेतना की समरसता और धार्मिक सूत्र की एकतानता तथा उपमा और दृष्टान्तों की एकरस परम्परा के बावजूद प्राकृतकथाओं की रोचकता और रुचिरता से इनकार नहीं किया जा सकता। सांस्कृतिक चेतना के प्रवाह के साथ श्रेष्ठ
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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