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से पृथ्वीका प्रलय होगा। मनुष्य आदि लोग दिनमें वैताढ्यपर्वतकी गुफामें रहेंगे और रात्रिके समय ही बाहर निकलेंगे। सब मांसाहारी होंगे ।"
आज के पर्यावरणवादियों ने ओझोन वायु के नष्ट होते जाते स्तरके बारे में जो चिंता व्यक्त की है, उसीका संदर्भ तो यहाँ नहीं मिल रहा है?
ब्रह्मांडकी कोई भी क्रिया उसके अपने नियमों से विरुद्ध कभी नहीं होती है । ब्रह्मांडकी संरचना और विभिन्न क्रिया-प्रतिक्रिया के अवलोकन करने के बाद ही हमारे पूर्वाचार्योंने सही जीवन के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया था । प्रकृति के साथ मेल-जोल से जीवनयापन करने की व्यवस्था ही मनुष्य के वर्तमान और भविष्य के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है।
जैनदर्शन में उपदेशित अपरिग्रह, परिग्रहपरिमाणव्रत अथवा इच्छापरिमाण व्रत भी महत्त्वपूर्ण है।
गृहस्थ साधक को अपने रोजबरोजके जीवन में उपयोगी चीजों के परिग्रहकी मर्यादा निश्चित करनी होती है - जैसे साधना की दृष्टि से इच्छा का परिसीमन अति आवश्यक है। जैन विचारणा में गृहस्थ साधक को नौ प्रकार के परिग्रह की मर्यादा निश्चित करनी होती है - १. क्षेत्र - कृषि भूमि अथवा अन्य खुला हुआ भूमि भाग, २. वास्तु- मकान आदि अचल सम्पत्ति, ३. हिरण्य- चांदी अथवा चांदी की मुद्राएँ, ४. स्वर्ण- स्वर्ण अथवा स्वर्ण मुद्राएँ, ५. द्विपद- दास दासी - नौकर, कर्मचारी इत्यादि, ६. चतुष्पद - पशुधन, ७. धन - चल सम्पत्ति, ८. धान्य - अनाजादि, ९. कुप्य - घर गृहस्थी का अन्य सामान ।
साधक वैयक्तिक रूप से भी अपने जीवनकी दैनिक क्रियाओं जैसे आहार-विहार अथवा भोगोपभोग का परिमाण भी निश्चित करता है। जैन परम्परा इस संदर्भ में अत्याधिक सतर्क है। व्रती गृहस्थ स्नान के लिए कितने जलका उपयोग करेगा, किस वस्त्रसे अंग पोंछेगा यह भी निश्चित करना होता है। दैनिक जीवन के व्यवहार की उपभोग - परिभोग की हरेक प्रकारकी चीजों की मात्रा और प्रकार निश्चित किये जाते हैं।
इस तरह बाह्य चीज - वस्तुओं के संयमित और नियंत्रित उपयोग से पर्यावरण का संतुलन हो सकता है। लेकिन यह नियंत्रण व्यक्ति को अपने आप सिद्ध करना होगा। इसके लिए उसे क्रोधादि कषायों से मुक्त होना पड़ेगा। राग, अहंता, क्रोध, गर्व आदि कषायों पर विजय पाने के बाद ही व्यक्तिकी चेतना अपने और पराये के भेद से उपर उठ जाती है। और 'आयतुल पायासु' - अन्य में भी आत्मभावकी अनुभूति करती है। अहिंसक आचरण के लिए मनुष्य के मनमें सर्व के प्रति मैत्रीभावना, 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना सदा जागृत होनी चाहिये, अन्यथा उसका व्यवहार स्व-अर्थको सिद्ध करनेवाला ही होगा, जो सामाजिक जीवनमें विषमता उत्पन्न कर सकता है।
व्यक्तिकी आंतरिक विशुद्धि ही प्राकृतिक और सामाजिक जीवनमें संवादिता की स्थापन कर सकती है। यह . संवादिता ही पर्यावरण विशुद्धि का पर्याय भी बन सकती है।