SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चारसंहिता और पर्यावरण 373 का व्यापार करने का भी निषेध है । इस नियम का पालन करने से जीवों की रक्षा के साथ खनिज संपत्ति का अनावश्यक उपयोग भी नही होगा । मदिरा जैसी नशीली वस्तु व्यक्ति और समष्टि का अहित करती हैं। और तालाब सरोवर आदिका जल सुखाने के लिये जो निषेध किया गया है वह जलकाय जीवों की विराधना से मुक्त रखता है साथमें जल की कमी भी महसूस नहीं होगी। बड़े बड़े यंत्र चलाने का व्यवसाय भी आवश्यक नहीं है । आज हम देखते हैं की औद्योगीकरण से हमें अनेक प्रकार की सुविधायें उपलब्ध होती हैं, लेकिन इसी के कारण शायद, पर्यावरण को सबसे बड़ी हानि पहुँची है। केमिकल उद्योग और कुदरती तेल आधारित - जिसे पेट्रोकेमिकल संकुलन कहा जाता है, – ऐसे उद्योगो में प्रदूषण की समस्या अनिवार्यरूप से होती है। जल, वायु और पर्यावरणीय प्रदूषण को दूर रखने के लिए औद्योगिक इकाई आदि पर सरकार द्वारा अंकुश रखने का आरंभ तो हुआ है, लेकिन जब तक वैयक्तिक रूपसे इच्छाओं पर अंकुश नहीं होगा, अहिंसा और अपरिग्रहका पालन नहीं होगा, तब तक अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा । व्यक्ति के लिए जीवन निर्वाह के लिए कितनी चीजें आवश्यक हैं, उसे कितनी प्राप्त हो सकती हैं, उत्पादन प्रक्रिया में जीवसृष्टि के लिए आधाररूप हवा, पानी, जमीन और वनस्पतिको कितनी हानि होती है, उसका परिप्रेक्षण करना चाहिए। यंत्र - सामग्री, वाहन-व्यवहार के साधनों के अपरिमित उपयोग से ध्वनि-प्रदूषण की समस्या भी हमारे सामने आई है। जैनदर्शनमें अग्निकाय और अग्निको सजीव माना गया है। आचारांग नियुक्तिकार ने अग्नि सजीव होने के लक्षणरूप से खद्योत का दृष्टांत दिया है । खद्योत (जूगनू ) अपनी सजीव अवस्थामें ही प्रकाश दे सकता है। मृत्यु के बाद वह प्रकाशरहित हो जाता है। प्रकाशित होना, वह उसके चैतन्यका लक्षण है। इस तरह अग्निका उष्ण स्पर्श भी उनके सजीव होने का लक्षण है। श्रीदशवैकालिक सूत्र में 'दशपूर्वधर सूत्रकार श्री शय्यंभवसूरिजी 'ने बताया है कि किसी भी साधु-साध्वी के लिए अग्नि, अंगार, मुर्मुर, अर्चि, ज्वाला, शुद्ध अग्नि, विद्युत, उल्का आदिको प्रदीप्त करना निषिद्ध है । उसमें घी और ईंधन का उत्सिंचन नहीं करना चाहिए। वायु से ज्यादा प्रज्वलित करने का प्रयास और उसे बुझाने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए। इसे करने से तेजकायकी विराधना-हिंसा का दोष होता है। आज हम जंगलों को काटकर कोयले बनाने का व्यवसाय करते हैं, जलसे उत्पन्न विद्युत का और गैसका अनियंत्रित उपयोग हो रहा है। इससे वनस्पति और जल संबंधित प्रदूषण के साथ साथ वायुका प्रदूषण भी बढ़ गया है। वर्तमान में वैज्ञानिकों ने विकसित और विकासशील देशों द्वारा आकाशमें बार बार उपग्रहों को छोड़ने के बारे में और अवकाशमें होनेवाले प्रयोगों के प्रति गहरी चिन्ता व्यक्त की है। उपग्रहों और आवकाशी प्रयोगों द्वारा स्पेस शटल के ज्यादातर उपयोगसे, सूर्यके पारजांबली किरणों (Ultraviolate ), जो मनुष्य और समग्र प्राणीसृष्टि के लिए हानिकारक है, उसे रोकनेवाला ओझोन वायुका स्तर नष्ट हो जायेगा और सूर्य के पारजांबली किरण से सजीव सृष्टि का नाश होगा। सूर्य से मानो अग्निकी वर्षा होगी। मुनिश्री नंदीघोष विजयजीने अपनी 'जैनदर्शन : वैज्ञानिक दृष्टिसे' पुस्तकमें (पृ. १९९) में इस तरह लिखा है " जैन दृष्टिसे निर्देशित कालविभाजन के अनुसार छट्टा आरा वर्णनमें बताया गया है कि उसी समयमें अग्निकी वर्षा होगी, नमक आदि क्षारों की वर्षा होगी, जो विषाक्त होगी। उससे पृथ्वीमें हाहाकार होगा। इस तरह ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy