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जमानारसंहिता और पर्यावरण समित
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जैन आचारसंहिता और पर्यायवरण थुद्धि
डॉ. निरंजना बोरा पर्यावरण का प्रदूषण आजकी वैश्विक समस्या है। सांप्रत समयकी उपभोक्तावादी संस्कृति में प्रकृति के तत्त्वों का स्वच्छंद रूप से उपयोग हो रहा है। मनुष्य अपनी क्षुद्र वृत्तियों - वासनाओं की तृप्ति के लिए प्राकृतिक तत्वों का मनचाहे ढंग से, उपभोग और विनाश कर रहा है। इससे पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पति, तेज (अग्नितत्त्व) में एक प्रकार की रिक्तता और विकृति भी उत्पन्न होती जा रही है। विशाल परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण समग्र सजीव सृष्टि और मानवजाति के अस्तित्व का प्रश्न है। आज हमें चकाचौंध करनेवाले आर्थिक और भौतिक विकास के मार्गमें सबसे बड़ा प्रश्न चिन्ह है पर्यावरण का। विज्ञानकी शक्ति के सहारे उपभोग की अमर्यादित सामग्री उत्पन्न होती जा रही है। मनुष्य सुख ही सुख के स्वप्नों में विहरता है। लेकिन इस साधनसामग्री के अमर्यादित और असंयत । उपभोग ने हमें पर्यावरण के बहुत बड़े प्रश्नार्थ चिन्ह के सामने खड़ा कर दिया है।
वाय और जलप्रदषण. ओझोन वायके स्तर का नष्ट होना, पक्षी और प्राणियों की कई जातियों का अंत होना. इन सबके बारे में गंभीरता से सोच-विचार कर ठोस रूप से कार्य करना पड़ेगा। पर्यावरण का प्रश्न जीवनशैली का प्रश्न बन गया है। आर्थिक और । भौतिक विकास के क्षेत्र में मनुष्यने प्रकृतिसे न केवल सहायता ली है, आवश्यक मात्रा मे प्रकृति के तत्त्वों का उपयोग करने के बजाय उसका शोषण किया है। बल्कि महात्मा गांधीजीने बताया है कि मनुष्य को भविष्य के लिये सुरक्षित रखनी चाहिये-ऐसी कुदरती संपत्ति का सुख-सुविधा को वर्तमान में ही खर्च कर दिया है।
प्रकृति नानाविध स्वरूप द्वारा अपने आप को अभिव्यक्त करती है। गांधीजी की दृष्टि से प्रकृति जीवंत है और जल, वायु तथा आहारकी आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाला जीवनप्रद स्रोतरूप है जो मानवजीवन और संस्कृति प्रकृति पर निर्भर है। ___ हमारे ऋषिमुनि क्रान्त-दृष्टा थे। उन्होंने प्रकृति के तत्त्वों के साथ समन्वित रुप से मनुष्य-जीवन की एक आदर्श व्यवस्था का आयोजन किया था, जिसमें अन्य प्राणियों के जीवन की सुरक्षा भी निहित थी। अहिंसक और मैत्रीपूर्ण जीवनव्यवहार में सब सुरक्षित विकासशील और प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते जा रहे थे - प्रकृति का भी उसमें साथ सहयोग था।