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म तियों के वातायन में | (१) प्रतिदिन सूर्यके भ्रमण मार्ग निरूपण-सम्बन्धी सिद्धान्त- इसीका विकसित रूप दैनिक अहोरात्रवृत्तकी ! कल्पना है। (२) दिनमानके विकासकी प्रणाली। (३) अयन-सम्बन्धी प्रक्रिया का विकास- इसीका विकसित 1 रूप देशान्तर, कालान्तर, भुजान्तर, चरान्तर एवं उदयान्तर-सम्बन्धी सिद्धान्त हैं। (४) पर्वो में विषुवानयन । इसका विकसित रूप संक्रान्ति और क्रान्ति है। (५) संवत्सर-सम्बन्धी प्रक्रिया-इसका विकसित रूप सौरमास, । चान्द्रमास,सावनमास एवं नाक्षत्रमास आदि हैं। (६) गणित प्रक्रिया द्वारा नक्षत्र लग्नानयकी रीति-इसका । विकसित रूप त्रिशांश, नवमांश, द्वादशांग एवं होरादि हैं। (७) कालगणना प्रक्रिया- इसका विकसित रूप अंश,
कला, विकला आदि क्षेत्रांश सम्बन्धी गणना एवं घटी पलादि सम्बन्धी कालगणना है। (८) ऋतुशेष प्रक्रिया। इसका विकसित रूप क्षयशेष, अधिमास, अधिशेष आदि हैं। (९) सूर्य और चन्द्रमण्डल के व्यास, परिधि और । घनफल प्रक्रिया-इसका विकसित रूप समस्त ग्रह गणित है। (१०) छाया द्वारा समय-निरूपण-इसका विकसित | रूप इष्ट काल, भयात, भभोग एवं सर्वभोग आदि हैं। (११) नक्षत्राकार एवं तारिकाओं के पुजादिकी व्याख्या
इसका विकसित रूप फलित ज्योतिषका वह अंग है जिसमें जातककी उत्पत्तिके नक्षत्र, चरण आदिके द्वारा फल बताया गया हो। (१२) राहु और केतुकी व्यवस्था- इसका विकसित रूप सूर्य एवं चन्द्रग्रहण-सम्बन्धी सिद्धान्त हैं। __जैन ज्योतिष ग्रन्थों में उल्लिखित ज्योतिष-मण्डल, गणित-फलित, आदि भेदोपभेद विषयक वैशिष्टयों का दिग्दर्शन मात्र कराने से यह लेख पुस्तकका रूप धारण कर लेगा, जैसाकि जैन शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध गणित, पलित आदि ज्योतिषके ग्रन्थों की निम्न संक्षिप्त तालिका से स्पष्ट है। तथा जिसके आधार पर शोध करके जिज्ञासु स्वयं निर्णय करसकेंगे कि जैन विद्वानोने किस प्रकार भारतीय ज्योतिष शास्त्रका सर्वाङ्ग सुन्दर निर्माण, पोषण एवं परिष्कार किया है।
संदर्भ: (1) स्वराकमेते सोमार्को यदा साकं सवासवौ। स्यात्तदादियुगं माघस्तपरशुक्लोऽयनं युदक्॥ प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसाबुवदक। साधे दक्षिणार्कस्तु माघश्रावणयोरसदा॥विदाङ्ग ज्योतिष पृ. ४-५) । (2) हिन्दुत्व प्र. ५८१। (3) "सावण बहुल पडिवए वालकरणे अभीइ नक्खत्ते। सब्बत्थ पडम समये जुवस्स आइं वियाणाहि॥' (4) वेदाङ्गज्योतिषकी भूमिका, पृ.३।। (5) सूर्यप्रज्ञप्ति, पृ.२१६-१७ (मलयगिर टीका) (6) द्वाषष्टितमघस्रस्य ततस्सूर्योदयक्षणे। उपस्थिता पूर्वरीत्या द्राक त्रिषष्टितमी तिथिः॥ (7) निरेक द्वादशाभ्यस्तं द्विगुणं रूपसंयुतम्। षष्ठ्या षष्ठ्या युतं द्वाभ्यां पर्वणां राशिंरूच्यते॥
- वेदांगज्योतिष (याजुप ज्योतिषं सोमाकर सुधाकर भाष्याभ्यां सहितम्, पृ. २ (8) ज्योतिष करण्डक प. २००-२०५। (पर्व पष्ठात) (9) नक्षत्राणां परावर्त.... इत्यादि। काललोकप्रकाश, पृ. ११४। (10) "रौद्रःश्वेतश्च... इत्यादि" धवला टीका, चतुर्थ भाग पृ. ३१८।। (11) “सवित्रो धुर्यसंशश्च...." इत्यादि। धवला टीका, चतुर्थ भाग, पृ. ३१९ (12) “प्रथम बहुल पडिवए..... इत्यादि, सूर्यप्रज्ञप्ति (मलयगिर टीका सहित) पृ. २२२। (13) ज्योतिषकरण्डक, गाथा ३११-२० (14) "द्वयग्नि नमेषूत्तरतः...." पद्य, पञ्चसिद्धान्तिका। (15) चन्द्रप्रज्ञप्ति, पृ. २०४-२१०