________________
356
स्मृतियों के वातायन से
अनेकों देव - देवियाँ, अप्सरायें, गन्र्धव-कन्यायें, किन्नर और विद्याधर, बने हुये हैं। मानव जीवन की सारी व्यवस्थायें, विशेषताएं और व्यथाएं, जन्म-मरण के सारे रहस्य, राग और विराग के सैकड़ों दृश्य, इन मूर्तियों के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत हो जाते हैं । शान्तिनाथ संग्रहालय दर्शनीय शिल्प भंडार है। चमत्कार यह है कि जो जैसा मन लेकर आता है वैसा ही प्रभु दर्शन यहाँ उसे प्राप्त होता है ।
जेहि कर हृदय भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।
खजुराहो के बड़े मंदिर में तीर्थंकर शान्तिनाथ की वह मूर्ति खड़ी है जिसे समूचे खजुराहो की विशालतम प्रतिमा होने का गौरव प्राप्त है। इस की ऊँचाई मनुष्य की ऊँचाई से तीन गुनी है।
निरभिमानता और नम्रता का अद्भुत शिलालेख
यह भूमि जहाँ निर्माण के बीजक भी नम्रता और निरभिमानता के शब्दचित्र बन जाते हैं। जब कोई श्रावक जिनालय का निर्माण कराता है, तब उसकी जिनेन्द्र-भक्ति अपनी चरम सीमा पर होती है। अपने निर्माण की कुशलता के प्रति वह बहुत चिन्तित होता है । आनेवाले हजारों सालों तक के लिये अपने कृतित्व की सुरक्षा की कामना करते भी वह अपने मन में निर्माण के प्रति कभी अहंकार की भावना नहीं आने देता। अपने जिनायतमन के प्रति निर्माता का यह प्रशस्त राग उसके लिये परम्परा से मोक्ष का कारण बन सकता है। खजुराहो में पार्श्वनाथ जिनालय के निर्माता पाहिल सेठ ने अपने मन्दिर के द्वार पर अपनी ऐसी ही भावना अंकित करके जैसे अपनी सदाशय विनम्रता का रेखा - चित्र पत्थर पर उत्कीर्ण कर दिया हैपाहिल वंशे तु क्षयेक्षीणे अपर वंशोऽयं कोपि तिष्ठति,
तस्य दासस्य दासोऽहं मम दत्तिस्तु पालयेत ।
9
इस पाहिल वंश के क्षय या क्षीण हो जाने पर भी, अन्य वंशों में कोई तो रहेगा। उनमें से जो मेरे इस दान की पालना या सेवा-सम्हार करेगा, मैं अपने आपको उस कृपालु के दासों का भी दास स्वीकार करता हूँ ।
जैन इतिहास की शोध - खोज में पाँच हजार से अधिक शिलालेखों और मूर्तिलेखों का अध्ययन करने का सौभाग्य मुझे मिला है। इस अभ्यास के बल पर मैं कहना चाहता हूँ कि इतनी नम्रता से ओतप्रोत अभिलेख कहीं अन्यत्र मेरे देखने में नहीं आये । बुन्देलखण्ड की इस साँस्कृतिक विरासत को मैं बार बार प्रणाम करता हूँ।
देवताओं का गढ़ देवगढ़
यह देवगढ़ है। ललितपुर से चलकर घने जंगलों के बीच से 30 किलोमीटर पक्की सड़क हमें यहां तक लाती है। गांव के बाहर ही डेढ़ हजार वर्ष प्राचीन दशावतार मंदिर वैष्णव आराधना का एक सुन्दर स्मृति चिन्ह है। ऊपर पहाड़ पर एक परकोटे से जैन तीर्थ प्रारम्भ होता है। ये मंदिरों के समूह यहां सैकड़ों वर्षों की साधना से आकार ग्रहण कर पाये थे। कलाकारों ने कई पीढ़ियों तक गढ़ा है, तब ये हजारों मूर्तियाँ बन पाई हैं। छैनी और हथौड़ी की सरगम से शताब्दियों तक यह अटवी गूंजती रही है तब पत्थर में इस संगीत का संचरण हुआ है। फिर इस पर कुदृष्टि पड़ी विधर्मियों की । जिस प्रकार एक दिन मनुष्य ने इन्हें गढ़ा था, उसी प्रकार मनुष्य के हाथ से ही इनका विध्वंस भी हुआ। बहुत समय तक होता रहा, परन्तु जिंदगी क्या कभी हारती है ? हारती तो मौत ही है। विनाश के मरघट में सृजन के अंकुर सदा फूटते ही रहे हैं। सदियों के भंजन के बाद भी देवगढ़ में जो बचा है वह अपने आप में बहुत है। देवगढ़ सचमुच देवताओं का गढ़ था, देवताओं का गढ़ है, और देवताओं का गढ़ रहेगा। आज भी इतनी देव प्रतिमायें इस पहाड़ पर हैं कि उन पर एक-एक मुट्ठी चावल चढ़ाते चलिये तो बोरा भर चावल भी कम होगा, पूजेगा नहीं ।