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________________ 317 | का 3/7 जोड़ने से योग आवे उतने उत्तर पश्चिम में गये। उत्तर-पश्चिम और पश्चिम दिशा में जाने वाली संख्या | के अन्तर में उसी का 7/8 मिलाने से जो फल आवे उतने उत्तर दिशा में गये उत्तर-पश्चिम और उत्तर दिशा में जाने वाली संख्याओं के योग में उसी का 2/3 घटाने से जो प्राप्त हो, वे उत्तर पूर्व दिशा में गये, यदि 280 तोते आकाश में विचरते रह गये तो झुण्ड में कुल मिलाकर कितने तोते थे।। 7 (2) एक व्यक्ति घर पर कुछ आम लाया। उनमें से आते ही उनके बड़े लड़के ने एक आम खा लिया। फिर जितने आम शेष रहे उनके आधे खा लिये। बड़े लड़के के जाने पर छोटे लड़के ने भी शेष में से उसी प्रकार फल लिये। शेष के आधे आमों को तीसरे लड़के ने ले लिया। बताओ उस व्यक्ति द्वारा लाये हुये आमों की संख्या क्या थी। भिन्नों का अपवर्तन भिन्नों को सरल करने के लिये हिन्दू प्रणाली में 'अपवर्तन' या 'वर्तन' नामक शब्द प्रयुक्त होते थे। इसका अर्थ होता है कि भिन्न के अंश और हर दोनों में सामान्य संख्या (Common factor) का भाग देकर भिन्न को सरल रूप में लाना। इन शब्दों-अपवर्तन और वर्तन को अनेक हिन्दू गणितज्ञों के साथ 6वीं शताब्दी के जैनाचार्य जिनभद्रगणि' ने प्रयोग किया है। गाणितिक परिकर्म करने से पहले भिन्नों को अपवर्तित करना आवश्यक समझा जाता था, परन्तु अपवर्तन की क्रिया को परिकर्म नहीं माना जाता था। यह क्रिया गणित की पुस्तकों में नहीं मिलती है। सम्भवतः इसको मौखिक रूप से कराया जाता था, परन्तु यह निश्चय है कि ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से ही यह नियम प्रचलित था क्योंकि उमास्वातिकृति 'तत्वार्थाधिगम सूत्र-भाष्य में एक स्थान पर दार्शनिक विवेचन की व्याख्या करते समय दृष्टान्त रूप से इसकी चर्चा की गई है। जो इस प्रकार है 'अथवा, जिस प्रकार भिन्नों को सरल करते समय, कुशल गणितज्ञों द्वारा अंश और हर का अपवर्तन कर । देने पर भी कोई अंतर नहीं पड़ता, इसी प्रकार.......20 'सूर्य प्रज्ञप्ति' में अपवर्तन के कई उदाहरण मिलते हैं- यथा21 n e - me - wo 3886 - 10 तथा 1 'तत्वार्थधिगमसूत्र' में ऐसे उदाहरण मिलते हैं- यथा22 । 100000 = 5262 190 मिन्नों का कलासवर्णन (सरल करना)- कलासवर्णन का अर्थ, भिन्नों को समहर करना होता है। इसकी आवश्यकता भिन्नों को जोड़ने या घटाने के समय होती है। यह क्रिया बहुत पहिले वेदांगकाल (ई.पू.1200), शुल्बसूत्र काल ई.पू. 800) तथा सूर्य प्रज्ञप्ति (ई.पू.300) में मालम थी, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि उन दिनों कलासवर्णन के क्या नियम थे, परन्तु ऐसा मालूम पड़ता है कि जब जैन ग्रन्थ लिखे गये उस समय । जैन लोग भिन्नों के जोड़ने व घटाने में समहर विधि काम में लाते थे क्योंकि 'कलासवर्णन' शब्द की उत्पत्ति से । ऐसा ही प्रतीत होता है। कला का अर्थ भिन्न जैसे 1/16 आदि से है और सवर्ण का अर्थ एक वर्ण या एक जाति , में लाना है, परन्तु विधि की कठिनाई के कारण पहले गणितज्ञ केवल दो भिन्नों को एक बार लेकर जोड़ते अथवा घटाते थे। उनकी विधि इस प्रकार थी- प्रत्येक भिन्न के अंश और हर को दूसरी भिन्न के हर से गुणा करो। ऐसा । करने से वे दोनों भिन्ने समहर हो जाएँगी। यदि जोड़ना हो तो उनके अंशों को जोड़ दो और यदि घटाना हो तो ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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