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________________ -memes muver प्रेक्ष्य में अर्थशास्त्र 2751 धन के बारे में अज्ञानी की मान्यता यह होती है कि मैं उद्यमी हूँ, पराक्रमी हूँ, बुद्धिमान हूँ, दानवान हूँ, प्रवीण हूँ आदि, जिससे लक्ष्मी मेरे पास से नहीं जा सकती। आलसी, कायर व उद्यमहीन के लक्ष्मी नष्ट हो जाती है। लेकिन ऐसी मान्यता भ्रम है। जो लक्ष्मी चक्रवर्ती से लगाकर महापुण्यवानों के नहीं रही, वह लक्ष्मी पुण्य रहित लोगों में कैसे प्रीति कर रहेगी। धर्मात्माओं के पास रहे- ऐसा भी कोई नियम नहीं है। ज्ञानी की मान्यता तो यह होती है कि धन पूर्व भवों में किये गये पुण्य के उदय में मिली है उस पुण्य के समाप्त होते धन भी चला जाता है और उसके साथ समस्त वैभव, कांति, बुद्धि, प्रीति, प्रतीति, प्रतिष्ठा सब नष्ट हो जाता है। धन पुण्य के उदय में मिलता है लेकिन जो उस धन को भोगता है तो अनेक प्रकार के पाप का बंध करता है। अतः जैनागम में धन का न्याय के भोगों में लगाना, दयाभाव रखना, दान देना आदि का उपदेश है। धन को धर्म के कार्य में देने को कहा है और वह भी बिना ख्याति, लाभ आदि की चाह से। दान का फल स्वर्ग की लक्ष्मी की प्राप्ति, भोगभूमि की लक्ष्मी का असंख्यात काल तक भोग आदि हैं। कुपात्र दान से असंख्यात द्वीपों में उत्पन्न होता है जहां कुभोग भूमियां हैं, जहां तिर्यंच या मनुष्य अनेक विकृतियों को लेकर होते हैं। ... ___ इस प्रकार आगम के परिप्रेक्ष्य में अर्थशास्त्र एक जीवनशास्त्र है। सुख की प्राप्ति के लिए चारों ही गतियों में जीव काम-भोग या इंद्रियों के विषयों में लिप्त होते हैं- यही संसारी जीवों का जीवन शास्त्र है और उन बातों का जिनागम में विस्तृत वर्णन है। लेकिन सुख तो अखंड होता है उसे आर्थिक सुख या आध्यात्मिक सुख ऐसा । विभाजन करना उचित नहीं है। जीव एक है और उसके सुख को कई भागों में बांटना, जीव को खंडित करने जैसा है। आर्थिक सुख या इंद्रिय सुख सुख ही नहीं है। आत्मा का सुख तो अनंत है, आत्मा से ही उत्पन्न होता है, इंद्रियों व विषयों के परे है- विषयातीत है, विलक्षण व अनुपम है, परम अद्भुत और अपूर्व है, और अविच्छिन्न है, अतः वांछनीय है। यही पारमार्थिक अर्थशास्त्र है, अर्थात् ऐसे सुख की प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य व आदर्श है।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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