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________________ 237 तक जा पहुँचे हैं वहीं जैनाचार्यों ने द्रव्य प्रमाण हेतु संख्यामान गणनानन्त तक प्रस्थापित किया था। वर्तमान विज्ञान ने फोटोन, ग्रेविटोन एवं ग्लूकोन जैसे अति सूक्ष्म कणों की खोजकर इन्हें भार रहित पदार्थ माना है। जैनाचार्यों ने पूर्व में ही दो तरह के पदार्थों का वर्णन किया - (अ) भारसहित एवं (ब) भाररहित । ! आत्मा का सिद्धांत इसका अति उत्तम उदाहरण है। जैन दर्शन के अनुसार संसारी अवस्था में आत्मा के चारों ओर कर्मों का एक आवरण होता है। बंध प्रक्रिया द्वारा यह कर्म आत्मा के चहुँ ओर अवस्थित रहते हैं । जैन दर्शन में 'कर्म सिद्धान्त' की विस्तृत व्याख्या की गई है जिसमें इन भार रहित कर्मो के गुण, स्थिति, गति इत्यादि को परिभाषित किया गया है। ब्रह्मांड के इन दो अवयवों, दीर्घ एवं सूक्ष्म पदार्थों को द्रव्य एवं बल के अंतर्गत वर्तमान में जाना जाता है। कर्म सिद्धान्त एवं क्वान्टम - यांत्रिकी : जैन दर्शन के अनुसार कार्य के प्रति नियामक हेतु को कारण कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है- अंतरंग एवं बहिरंग | अंतरंग कारण को उपादान और बहिरंग कारण को निमित्त कहते हैं। जो कार्य रूप परिणमता है वह उपादान कारण होता है और उसमें जो सहायक होता है वह निमित्त कारण कहलाता है। इस प्रकार प्रत्येक कार्य उपादान और निमित्त दोनों कारण मिलने पर ही संभव है। क्वान्टम यांत्रिकी के अनुसार सभी आवश्यक कारणों के मिलते हुए भी अभीष्ट कार्य होने की शत-प्रतिशत गारंटी नहीं है। समान कारणों के होते भी फल हुए असमान हो सकते हैं। कर्म सिद्धांत क्वान्टम यांत्रिकी को समझने में सहायक सिद्ध हो सकता है। जैन दर्शन में कर्म को अत्यंत सूक्ष्म पुद्गल कण माना गया है। यह कर्म रूपी पुद्गल आत्मा के साथ अनंत काल से संयोग बनाये है एवं देश-काल के अनुरूप अपना प्रमाण दिलाते हैं। जीव इनसे प्रभावित होकर पुनः नये कर्म अर्जित करता है और यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। कर्मों की भी उदीरणा होने पर उसके फल में परिवर्तन आ सकता है। इसे क्वान्टम यांत्रिकी के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। जैन आहार संहिता : जैन दर्शन में आत्म शुचिता के साथ-साथ अपने वातावरण एवं खान-पान की शुचिता को भी विशेष महत्त्व दिया गया है। पदार्थों का जितना सूक्ष्म वर्णन जैन धर्म में मिलता है उतना शायद कहीं भी प्राप्त नहीं होता । । वैज्ञानिक दृष्टिकोण में यह भक्ष्य एवं अभक्ष्य पूरी तरह सही साबित होते हैं। कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं: 1. आटे की मर्यादा वर्षाकाल में 3 दिन, गर्मी में 5 दिन और जाड़े में 7 दिन की कही गई है। वैज्ञानिक खोजों से सिद्ध हुआ है कि वर्षाकाल में नम-उष्ण वातावरण होने से एस्परजिलस, म्यूकर, राइजोपस, सेकेरोमाइसिस जैसे कवक एवं अनेक प्रकार के बैक्टीरिया आटे एवं अन्य खाद्य पदार्थों को संक्रमित कर देते हैं। जबकि जाड़े में इनका प्रभाव विलम्ब से हो पाता है । 2. शक्कर, किशमिश या छुहारा आदि मिले हुए दही की मर्यादा मात्र 48 मिनिट है क्योंकि मीठे पदार्थों के मिलने से दही में जीवाणुओं की सक्रियता बढ़ जाती है। 3. विधिवत निर्दोष विधि से बनाये गये दही की मर्यादा 24 घंटे की है क्योंकि उसके उपरांत इसमें एल्कोहलिक फरमेन्टेशन प्रारम्भ हो जाता है। 4. जल को उबालने पर उसकी मर्यादा 24 घंटे की है। सामान्य रूप से गर्म करने पर 12 घंटे और मात्र । 1
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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