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________________ फफen 193 तो जैन भी नहीं हो।' उन्होंने कहा 'तुम एक महिने के लिए रात्रि भोजन और अभक्ष्य का त्याग करों । मैंने कहा | 'स्वामीजी मैं किस्तों में नहीं छोड़ सकता हूँ। पर आज आपके समक्ष रात्रि भोजन का त्याग, अभक्ष्य का त्याग एवं तम्बाकू का त्याग करता हूँ।' मुझे स्वयं इस बात का आश्चर्य हुआ कि दूसरे दिन से इन किन्हीं वस्तुओं की मुझे याद तक नहीं आई जिनके बिना चलता नहीं था । इसी दौरान अपनी पत्नी, सासुजी और छोटे पुत्र के साथ श्री सम्मेदशिखरजी की यात्रा को गया । वहाँ मैंने अपने प्रिय बैगन को त्यागा, साबुदाने का त्याग किया और विषम परिस्थितियों के अलावा होटल में खाने का त्याग किया। उन होटलों में खाने का तो सर्वथा त्याग किया जहाँ अंडे या माँसाहार बनता हो। जिसका निर्वाह मैंने बड़ी चुस्तता से किया। और यही कारण है कि मैंने कभी रेलगाड़ी या प्लेन में बाहर का खाना नहीं खाया। इतना 1 ही नहीं मैंने प्रति चतुर्दशी को एकासन करने का भी संकल्प किया। मैंने यह भी संकल्प किया है कि मैं जबतक संभव होगा बिना दर्शन के जलपान तक नहीं करूँगा । लगभग २० वर्ष पूर्व मैंने चाय और कॉफी का भी त्याग किया। इसप्रकार मुझे बड़ी आत्मसंतुष्टि हुई कि धर्म पर बैठकर एक पंडित में कमसे कम जैनत्व के इतने लक्षण तो होना ही चाहिए और मुझे यह आत्मसंतोष है कि मैं इनका पालन कर रहा हूँ। मैं मानने लगा हूँ कि चारित्र बिना का पंडित अंधा होता है और ज्ञान के बिना मुनि लंगडा होता है। मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे और अधिक चरित्र में, नियमपालन में दृढ़ता प्राप्त हो । मैं इस नियमबद्धता में बंधने के स्वयं को कारणभूत तो मानता हूँ परंतु मेरे इस उपादान को जागृत करने में पू. भट्टारकजी का सर्वाधिक योगदान रहा।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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