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निवास स्थान पर जाकर लॉन में बैठे। ठीक समय पर तत्कालीन कांग्रेस के अध्यक्ष श्री उछंगभाई ढेबर भी 1 उपस्थित थे। इंदिराजी पधारीं, बच्चों के साथ तस्वीर भी खिंचवाई। बच्चों से १५ मिनट तक उनकी शिक्षा आदि के बारे में पूछते-पूछते एकदम बोली 'अच्छा! उस भावनगर से आ रहे हो जहाँ शामलदास कॉलेज में गांधीजी अध्ययन करते थे।' जब उन्होंने पुनः पूछा कि आपके आचार्य कौन हैं तो भरतभाईने मेरी ओर इशारा किया। मैं भी मौन रहकर उस पद के आनंद को लेता रहा। इंदिराजी का व्यक्तित्व विलक्षण प्रतिभासंपन्न था। वे अभी! अभी १९७१ का जंग जीतकर मानो झाँसी की रानी ही लग रहीं थीं। उनका मृदु हास्य, बच्चों के साथ घुलमिल जाना बड़ा ही सुखद क्षण था। आज भी उस क्षण की यादें आँखों में उभर आती हैं।
प्रधानमंत्री श्री मोरारजीभाई देसाई के साथ एक क्षण
बात सन १९६७-६८ की है। मैं नवयुग कॉलेज में प्राध्यापक था। एन.सी.सी. में कमीशन पाकर लौटा था। 1 कंपनी कमांडर के साथ कॉलेज की अनुशासन समिति का चेयरमैन भी था। कॉलेज का वार्षिक दिन था । अतिथि के रूप में आदरणीय श्री मोरारजीभाई देसाई पधारे थे । जो अनुशासन और खादी के परम आग्रही थे। चूँकि हमारे आचार्यश्री वशी साहब भी अनुशासनप्रिय थे। शाम का कार्यक्रम चल रहा था। उसके बाद अध्यापकों के साथ एक मिलन समारंभ होना था । वशी साहब का आदेश था कि- 'मुख्य अतिथि आयें उससे पूर्व पूरे टेबल नास्ता आदि के साथ सजे हुए हों।' उन्होंने समय भी निश्चित कर दिया। टेबल सजाये गये । नास्ते के साथ आईस्क्रीम भी था । किन्हीं कारणों से कार्यक्रम आधा घंटा लेट हो गया। जब सभी कक्ष में आये तो आईस्क्रीम अपनी किस्मत पर रो-रो कर दूध में बदल गया था। पर अनुशासन माने अनुशासन
उसी समय एक विद्यार्थी उनके ऑटोग्राफ लेने आया। उन्होंने पूछा खादी पहनते हो? लड़के ने कहा'पहनता हूँ।' मोरारजीभाई ने पुनः पूछा- 'ऊपर ही पहनते हो या गंजी भी खादी की है ?' और पूछते-पूछते उसके गले में हाथ डालकर गंजी देखने लगे। जब उन्हें संतोष हो गया तभी ऑटोग्राफ दिया | फिर बोले 'कुछ लोग कुछ समय के लिए खादी पहनने का दिखावा करते हैं, नियमित नहीं पहनते।'
ऐसे श्री मोरारजीभाई के साथ समूह में बैठकर तसवीर खिचवा लेना, हस्तधूनन करने का अवसर प्राप्त करन आज भी उनके व्यक्तित्व का स्मरण कराता है।
जैन संस्कार
यद्यपि मैं किशोरावस्था से ही प्रवचन आदि करता था परंतु खान-पान में वह संयम नहीं था जो एक प्रवचनकर्ता या विद्वान में होना चाहिए। उस समय मैं कंद-मूल भी खाता था, प्याज़ और बैगन भी खाता था। मुझे तम्बाकू खाने की भी आदत थी । सो १२० के पान भी खा लेता था। रात्रि भोजन भी करता था। यह सब करते हुए भी प्रवचन करता था। जब प्रवचन का वक्तव्य और अपने जीवन के आचरण को देखता तो स्वयं से बड़ी ग्लानि होती कि मेरी कथनी और करनी में बड़ा अंतर है। लेकिन लगता है अभी निमित्त नहीं आया था या ज्ञानदर्शन का क्षयोपशम नहीं हुआ था।
बात लगभग सन् १९७५ की है। जब सूरत के पास श्री विघ्नहर पार्श्वनाथ महुवा में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा थी। वहाँ मूलबद्री के भट्टारक श्री चारूकीर्तिजी महाराज पधारे थे। उनका बड़ा वर्चस्व था। लोग उनसे बात करने और मिलने को लालायित रहते थे। वे मुझे थोड़ा सा जानते थे और मुझे उन्होंने मिलने का समय रात्रि में दिया । मैं उनसे मिला और मैंने अपनी सारी कमजोरियाँ उनके सामने रखीं। उन्होंने कहा 'अरे! तुम कैसे पंडित हो, तुम